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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में- रविभूषण

मुक्तिबोध और फैज जैसे कवियों ने जब ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने' और ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे' का आह्वान किया था, वे राज्यसत्ता के चरित्र और उसके द्वारा समय-समय पर लगायी गयी पाबंदियों से भली भांति परिचित थे. मुक्तिबोध ने तो नहीं, पर फैज ने राज्यसत्ता के दमन को ङोला भी था. अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने का काम सर्वसत्तात्मक और एकदलीय शासन प्रणाली मनमाने ढंग से करती...

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आरक्षण का आधार- संपादकीय(जनसत्ता)

सर्वोच्च न्यायालय ने जाट समुदाय को केंद्रीय सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्ग के तहत दिए गए आरक्षण की अधिसूचना रद्द कर दी। न्यायालय का यह फैसला राजनीतिक दलों के लिए एक सबक है, जो सियासी गरज से आरक्षण की नई-नई मांगों को हवा देते रहते हैं। इस क्रम में वे कई बार यह देखना भी गवारा नहीं करते कि कोई समुदाय आरक्षण का हकदार है या नहीं। जाटों...

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सर्वोच्च न्यायालय में न्याय- एम जे अकबर

बिना सम्मान के न्याय बहुत कमजोर होता है. कानून के शब्द सीमित होते हैं, लेकिन कानून की भावना असीमित होती है. एक न्यायाधीश का आकलन उसकी निष्कपटता और नैतिकता के आधार पर की जाती है. न्याय पक्षपाती तर्क की आवश्यकता को रेखांकित करता है, और यह भूमिका वह वकील के सुपुर्द कर देता है. वकील अपने पेशे से ही एकपक्षीय होता है, इसी कारण उसे अधिवक्ता कहा जाता...

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महंगी पड़ेगी मुफ्तखोरी की राजनीति - हृदयनारायण दीक्षित

धनार्जन बहुत कठिन नहीं होता, लेकिन खर्च की प्राथमिकता तय करना बहुत कठिन है। राजकोष राष्ट्रीय संपदा है। भारत के लोगों की श्रम साधना से संचित निधि। इसका विनियोग-सदुपयोग राष्ट्रीय विकास के लिए ही किया जाना चाहिए। संविधान निर्माताओं ने बहुमत प्राप्त सरकार को भी मनमाने खर्च की छूट नहीं दी। संसद और विधानमंडल आय और व्यय के प्रत्येक बिंदु पर विचार करते हैं, बजट पारित करते हैं। खर्च अधिकार...

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दावोस में दिखा बदलता भारत- तवलीन सिंह

दावोस के बाजार में उस रेस्टोरेंट में, जो पिछले वर्ष तक 'अड्डा' था भारतीयों का, इस वर्ष कांच की खिड़की पर एक बड़े शेर की तस्वीर बनी हुई है, जिसके ऊपर लिखा है- मेक इन इंडिया। इसके इशारे स्पष्ट हैं। एक बार फिर भारत के द्वार निवेशकों के लिए खुल गए हैं। दावोस में यह संदेश देना इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यहां दुनिया के सबसे बड़े निवेशक मौजूद थे।...

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