समस्याएं चिह्नित करना एक बात है, समाधान के रास्ते खोजना दूसरी बात। हमारे गांवों में अशिक्षा है, बेरोजगारी है, बीमारियां हैं, जमीनों के विवाद, मुकदमे हैं। जात-पांत की सामाजिक समस्याएं बरकरार हैं। हां, शोषण का वह रंग अब नहीं है, जो प्रेमचंद के उपन्यासों में मुखर होता है। कथित उच्च वर्ग में श्रम से अरुचि, दलित वर्ग में शिक्षा से अरुचि भी वहीं की वहीं है। नगरों की ओर पलायन...
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‘भारत में आजादी’ का अर्थ-- रविभूषण
आजादी की लड़ाई में आजादी के स्वरूप और उसकी अवधारणा को लेकर बीसवीं सदी के बीस के दशक के मध्य से जो विचार-मंथन आरंभ हुआ था, वह 1947 की अधूरी राजनीतिक आजादी या सत्ता-हस्तांतरण के कुछ वर्ष बाद थम गया. रुक-रुक कर वास्तविक और मुकम्मल आजादी की बातें हुईं. ‘संपूर्ण क्रांति' का आंदोलन भी हुआ, पर कुछ समय बाद ही न उसमें गति रही, न शक्ति, और न इच्छाशक्ति ही...
More »प्रतीकों के पीछे छुपे हुए अर्थ - मृणाल पांडे
आज जब देशभक्ति पर तर्कशील विमर्श असंभव होता जा रहा है और भावुकता दिमागों पर हावी है, ऐसे में राष्ट्र को एक मातृदेवी का रूप देने की तर्कसंगत व्याख्या सामयिक है। संविधान के तहत धर्मनिरपेक्ष घोषित देश में राष्ट्रभक्ति को भारतमाता की देवीस्वरूपा प्रतिमा की तरह जयकारे बुलवाने और प्रणाम करने की जिद पर गौर करना चाहिए, जो बहुलतामय भारत के राज-समाज में प्रभु के विभिन्न् स्वरूपों को मानने वालों...
More »महिला दिवस की सार्थकता- वीना श्रीवास्तव
हमारे देश में पूरे वर्ष हम चाहे कुछ ना करें, लेकिन किसी ‘खास दिवस' पर ढोल जरूर पीटते हैं. हम जिसके लिए खास दिवस मनाते हैं, पूरे वर्ष उसकी धज्जियां ही क्यों ना उड़ाते रहे हों, मगर खास दिन को ‘शो ऑफ' करना नहीं भूलते. ‘फादर्स डे', ‘मदर्स डे' पर मां-पिता को विश करना और पूरे वर्ष उन्हें जली-कटी सुनाना हमारी आदत है. इसी तरह महिला दिवस भी है. हर...
More »जातीय विषमता का जहर और आरक्षण की आग - राजकिशोर
हरियाणा और उसके आसपास का बड़ा इलाका जाट समुदाय की आरक्षण की मांग की आग में झुलस गया। इन मांगों का कभी अंत भी नहीं होगा। समानता व सामाजिक उत्थान के लिए आरक्षण की मांगों के पक्ष में कुछ भी तर्क दिए जाएं, लेकिन मुट्ठीभर लोगों का ही भला करने वाले इस तरीके से न तो समानता आने वाली है और न ही समाज में जातियों का जहर मिटने वाला...
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