जब अंगरेज भारत छोड़ कर गये, उन्होंने वे सभी प्रयास प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से किये, जिससे उपमहाद्वीप में सदा के लिए दरारें पड़ी रहें. अंगरेजों की दिली तमन्ना थी कि भारत टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा, क्योंकि इसे एक करनेवाला कोई है ही नहीं. लेकिन, उनके मंसूबों पर भारत के नेताओं ने पानी फेर दिया. सरदार पटेल ने पूरे देश को एक सूत्र में बांध दिया, पंडित नेहरू ने एक लोकतांत्रिक...
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विषमता की दुनिया-- धर्मेंन्द्रपाल सिंह
दावोस में विश्व आर्थिक मंच (वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम) की बैठक से ठीक पहले आर्थिक असमानता पर जारी आॅक्सफेम रिपोर्ट चौंकाती है। ‘एन इकॉनमी फॉर 99 परसेंट' नामक इस रिपोर्ट के अनुसार, आज बिल गेट्स, वारेन बफेट जैसे केवल आठ धन्नासेठों के पास विश्व की आधी गरीब आबादी यानी 3.6 अरब जनता के बराबर धन-दौलत है और एक प्रतिशत अमीरों के कब्जे में 99 फीसद संपत्ति है। यह हालत तब है...
More »लोकतंत्र में भय ! -- रविभूषण
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक आेबामा ने पिछले सप्ताह अपने विदाई-भाषण में लोकतंत्र को लेकर जो गहरी चिंताएं व्यक्त की हैं, उन पर हम सब का ध्यान देना अधिक आवश्यक है. संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत को दो प्रमुख लोकतांत्रिक देश माना जाता है. भारत में लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तंभ- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका आज किस हालत में हैं? एडमंड बर्क (1729-1797) ने 1787 में एक संसदीय बहस में जिस 'प्रेस'...
More »समाज सेवा के नाम पर-- मोनिका शर्मा
हाल ही में केंद्र सरकार ने देश में चल रहे तैंतीस हजार गैर-सरकारी संगठनों में से करीब बीस हजार संगठनों के लाइसेंस रद््द कर दिए हैं। सरकार ने यह कार्रवाई तब की, जब पाया गया कि ये एनजीओ विदेशी चंदा नियमन कानून (एफसीआरए) के विभिन्न प्रावधानों का उल्लंघन कर रहे हैं। यानीजिन एनजीओ का एफसीआरए लाइसेंस रद््द किया गया है, वे अब विदेशी चंदा नहीं ले सकेंगे। इस कार्रवाई के...
More »न्यायपालिका में आरक्षण-- डा. शैबाल गुप्ता
सफल पेशेवर होने के लिए मेधा तथा ज्ञान के मेल की जरूरत होती है. मगर चिकित्सा, पुलिस और खासकर न्यायपालिका जैसे पेशों हेतु ‘सामाजिक संवेदनशीलता' नामक एक अतिरिक्त अर्हता आवश्यक है. संवेदनशीलता वस्तुतः एक ‘सामाजिक धारणा' है, जिसे कोई व्यक्ति सामाजिक संरचना में उस वर्ग तथा जाति की स्थिति के आधार पर हासिल करता है, जिसके साथ वह रहता आया है. न्यायिक फैसले लेने में इसकी इतनी जरूरत है कि...
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