सैकड़ों करोड़ रु की जिस रकम से बिहार के स्कूलों की तस्वीर बदल सकती थी उसका ज्यादातर हिस्सा भ्रष्टाचारियों की जेब में चला गया. इर्शादुल हक की पड़ताल सत्ता के शीर्ष से चले अच्छे इरादों का जमीन तक पहुंचते-पहुंचते किस तरह बंटाधार हो जाता है, इसका उदाहरण है यह घोटाला. इससे यह भी साफ होता है कि योजनाएं कितनी भी अच्छी बन जाएं, जब तक उन्हें अमली जामा पहनाने वाले तंत्र...
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विकास की बंद गली- भारत डोगरा
जनसत्ता 2 फरवरी, 2012 : हाल के वैश्विक संकट ने विश्व-स्तर पर लोगों को नए सिरे से आर्थिक नीतियों के बारे में सोचने के लिए प्रेरित किया है। अब आम लोग और विशेषज्ञ दोनों निजीकरण, बाजारीकरण और भूमंडलीकरण पर आधारित मॉडल की प्रासंगिकता पर सवाल उठा रहे हैं। आम लोगों की बेचैनी की अभिव्यक्ति सबसे प्रबल रूप में आक्युपाइ द वॉल स्ट्रीट आंदोलन के रूप में हुई है। दूसरी ओर, इस बार...
More »पीड़ा के जंगल में आदिवासी- अनिल चमड़िया
जनसत्ता 24 दिसंबर, 2011 : आजादी के बाद आदिवासी ने क्या हासिल किया, इस विषय पर राजस्थान के बूंदी में दो दिन की चर्चा थी। इस अवसर पर किसी वक्ता ने यह नहीं कहा कि अंग्रेजों के जाने के बाद आदिवासियों की जीवन-दशा में किसी किस्म का बुनियादी बदलाव आया है। फिर आदिवासियों की उम्मीद और इस व्यवस्था के प्रति भरोसे को लेकर एक प्रस्ताव पारित किया गया। प्रस्ताव में...
More »मगध में मुरदहिया सन्नाटा- निराला(तहलका, हिन्दी)
बिहार के मगध क्षेत्र में इंसेफलाइटिस पिछले तीन महीने से अमूमन हर रोज एक बच्चे की जान ले रहा है. जो बच्चे बच जा रहे हैं उन्हें बाकी जिंदगी अपंगताओं के साथ गुजारनी होगी. लेकिन इलाके के जनप्रतिनिधि, शासन-प्रशासन और कथित समाजसेवी संस्थाएं आंखें मूंदे बैठे हैं. निराला की रिपोर्ट पिंकी की उम्र आठ-नौ साल होगी. गया-पटना रोड पर स्थित रसलपुर गांव की रहने वाली है. उसके सामने जाते ही उसकी...
More »अमीरी रेखा की जरूरत- सुनील
जनसत्ता 12 दिसंबर, 2011 : कुछ माह पहले जब योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दिया कि शहरों में बत्तीस रु. और गांवों में छब्बीस रु. प्रतिदिन खर्च करने वालों को गरीबी रेखा से ऊपर माना जाएगा, तो देश के संभ्रांत पढ़े-लिखे लोगों में और मीडिया में खलबली मच गई। अहलूवालिया से लेकर जयराम रमेश तक को सफाई में बयान देने पडे। उन्होंने यह...
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