जनसत्ता 30 मई, 2014 : भाजपा संसदीय दल का नेता चुने जाने की औपचारिकता के बाद मोदी ने संसद के केंद्रीय हाल से संबोधन में अपनी सरकार को गरीबों, युवाओं और स्त्रियों को समर्पित करार दिया। कॉरपोरेट जगत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चहेते ‘चायवाले’ के लिए इस दिखावे को अधिक दिनों तक निभाना टेढ़ी खीर ही होगी। गरीबों को लेकर मोदी का नवउदारवादी ट्रैक रिकार्ड सर्वाधिक संदेहास्पद रहा है।...
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विकास के मॉडल का सवाल- के पी सिंह
जनसत्ता 22 मई, 2014 : चुनाव प्रचार के दौरान विकास के बहुतेरे मॉडल विभिन्न राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों की ओर से प्रस्तुत किए गए। इससे पहले के चुनावों में भी विकास का कोई न कोई खाका पेश करके राजनीतिक दल मतदाताओं का विश्वास हासिल करते रहे हैं। इसके बावजूद ग्रामीण और दुर्गम पहाड़ी अंचलों में अधिकतर नागरिक आज भी स्वच्छ पेयजल और अन्य मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जी रहे...
More »दिल की जुबान या बाजार की भाषा?- प्रभु जोशी
यह निर्विवाद सचाई है कि तमाम युद्ध अस्त्रों-शस्त्रों से ही हारे या जीते नहीं जाते, बल्कि जय-पराजय के पलड़े का उठना या गिरना भाषा के सामर्थ्य से भी तय होता है। इसका प्रत्यक्ष चरितार्थ लोकतंत्र के महापर्व की तरह बताए गए लोकसभा के चुनावों में बहुत स्पष्टता के साथ दिखाई दिया। हर दल और हर एक नेता के लिए उसने लगभग युद्ध की शक्ल अख्तियार कर ली। गौर करना दिलचस्प...
More »बदलती राजनीति के संकेत- जगदीप एस छोकर
लोकसभा चुनाव ने कई तरह की उम्मीदें जगाई हैं, मगर हताशा भी कम नहीं है। मतदाताओं में जागरूकता बढ़ी है, लेकिन पूरे चुनाव के दौरान लगा कि राजनीतिक पार्टियां अब भी बदलने को तैयार नहीं। अभी सर्वोच्च न्यायालय का एक फैसला आया है कि चुनाव आयोग के पास पेड न्यूज की वजह से चुनाव खर्च की जांच करने का अधिकार है। दरअसल विरोधी पार्टी की शिकायत पर चुनाव आयोग 2009 के...
More »मीडिया चालित समाज में लोकतंत्र- विपुल मुद्गल
हमने चर्चित कारपोरेट पीआर बॉस नीरा राडिया, मीडिया की नामवर हस्तियों और राजनीति के दिग्गजों की टेलीफोन की बातचीत के लीक हुए टेपों में जो कुछ सुना है वह एक मीडिया-चालित(मीडिया-आइज्ड) राजनीति की सटीक तस्वीर पेश करता है। इस प्रकरण से पता चलता है कि किस तरह से पेशेवर संवादकर्मी (प्रोफेशनल कम्युनिकेटर्स) महत्वपूर्ण नीतियों के मामलों में जनता की समझ को गढते या परिचालित करते हैं। निसंदेह...
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