निश्चित ही कानून की नजर में सभी व्यक्ति समान हैं, लेकिन कानून तक सब लोगों की पहुंच एक-सी नहीं होती. अगर कोई व्यक्ति या समूह सामाजिक रूप से कमजोर है, तो उसके इंसाफ पाने की संभावना क्षीण हो जाती है. करीब 25 साल पहले इसी सोच से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम नामक कानून बना था. जातिगत उत्पीड़न का संज्ञान लेने और पीड़ित के प्रति पर्याप्त...
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जहां हम सब असहाय हैं-- रंजना कुमारी
हमारे देश में जिस तरह का कानून है, उसमें निर्भया के गुनहगार को बाहर आना ही था। ‘जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट' के तहत अपराधी को तीन साल ही बाल सुधार गृह में रखा जा सकता है। मगर यहां इस बात पर जरूर गौर किया जाना चाहिए कि पिछले तीन वर्षों में इस अपराधी की मानसिकता में सुधार क्यों नहीं हुआ? सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार से यह साफ-साफ पूछा कि...
More »लोकतंत्र की जड़ में राजनीति का मट्ठा - सुभाष कश्यप
अब जाकर उम्मीद जगी है कि आज से तीन दिन संसद के शीतकालीन सत्र में थोड़ा-बहुत विधायी कामकाज हो सकेगा। लेकिन क्या पहले ही बहुत देर नहीं हो चुकी है? पहले समूचे मानसूत्र सत्र और अब शीतकालीन सत्र के एक बड़े हिस्से के दौरान लोकतंत्र का मंदिर कही जाने वाली संसद में जो कुछ देखने को मिला है, वह बेहद दु:खद और अप्रत्याशित रहा है। संसद के दोनों ही सदनों...
More »दंड विधान को उदार बनाने का वक़्त-- शशि थरुर
ब्रिटिश शासकों से विरासत में मिली हमारी संसदीय व्यवस्था में कानून बनाने का काम मोटे तौर पर सरकार द्वारा संचालित है। ऐसा प्रावधान नहीं है कि विपक्षी दल विधेयक लाएं और उन्हें पारित कर कानून का रूप देने का प्रयास करें। हालांकि, संसद सदस्य व्यक्तिगत रूप से ऐसा कर सकते हैं। इस प्रावधान को ‘निजी सदस्य के विधेयक' कहा जाता है। संसद चल रही हो तो हर शुक्रवार की दोपहर...
More »संविधान की भावना को भी समझें-- योगेन्द्र यादव
अदालतों के आदेश की आलोचना से मैं अकसर परहेज़ करता हूं। इसलिए नहीं कि अदालत का आदेश हमेशा सही लगता है। इसलिए भी नहीं कि अदालत की अवमानना डराती है। बल्कि इसलिए कि लोकतंत्र के खेल में किसी रेफ़री के आदेश का सम्मान तो करना पड़ेगा। रेफ़री मेरी पसंद का आदेश दे तो उसे सर -आंखों पर बैठाऊं, नहीं तो उसे आंखें दिखाऊं-ऐसे तो नहीं चल सकता। इसलिए कई बार...
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