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भूमि अधिग्रहण और स्त्रियां- मुस्कान

जनसत्ता 29 अप्रैल, 2013: भूमि अधिग्रहण (पुनर्वास और पुनर्स्थापन) विधेयक अब कानून बनने की दिशा में निर्णायक मोड़ पर आ चुका है। एक सौ सत्तासी संशोधनों के सुझावों के बाद अब अगर संसद में विधेयक पर मुहर लग जाती है तो एक तरफ जहां सरकार अपनी पीठ थपथपाएगी वहीं ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में जिनकी जमीनें अधिग्रहीत की जानी हैं, वे भी मुआवजा बढ़ने से शायद राहत महसूस करें। लेकिन...

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समानता का सपना- रुचिरा गुप्ता

जनसत्ता 14 मार्च, 2013: कोई भी बदलाव डरावना होता है। खासकर वैसा बदलाव, जो राजनीति और यौन भूमिका दोनों को प्रभावित करता है। सोलह दिसंबर को दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार कांड के व्यापक विरोध ने देश में एक चिनगारी सुलगा दी है। पुरुषों की हर तरह की हिंसा को खत्म करने के लिए स्त्रियों के आंदोलन की मांग लगातार होती रही है। विरोध-दर-विरोध में युवतियों का साथ युवक भी दे...

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नकद पैसे का खेल- बनवारी

जनसत्ता 14 फरवरी, 2013: मनमोहन सिंह सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि गरीबी एक आर्थिक और राजनीतिक समस्या के बजाय अब केवल वित्तीय समस्या रह गई है। केंद्र सरकार की प्राथमिक चिंता अब न बेरोजगारी है, न महंगाई। देश की इन दो सबसे बड़ी समस्याओं से मुंह चुराने का उसने एक आसान उपाय निकाल लिया है। देश के गरीब लोगों के हाथ में दमड़ी रख दो; इससे सरकार के कल्याणकारी...

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गरीबों की पहुंच से ऊपर हो रही है दिल्ली- मनोज मिश्र

नई दिल्ली । दिल्ली और एनसीआर(राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) को आम की बजाए खास आदमी का शहर बनाने की तैयारी हो रही है। इसका नतीजा यह हुआ है कि एनसीआर के कई इलाके उजड़ने के कगार पर हैं। दिल्ली के कुछ इलाकों को छोड़ दें तो दिल्ली के ज्यादातर इलाके स्लम जैसे बनते जा रहे हैं। 1483 वर्ग किलोमीटर की दिल्ली का महज पांचवा हिस्सा ही रिकार्ड में बचा है, जिसे...

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गुजरात के विकास का सच

जनसत्ता 6 नवंबर, 2012: अमिताभ बच्चन जब भी रेडियो और टेलीविजन पर एक विज्ञापन ‘खुशबू गुजरात की’ करते हैं तो उनकी दिलकश आवाज और लहजे से एक बार तो मन करता है कि ‘गुजरात-2002’ को भूल कर एक साधारण पर्यटक की तरह गुजरात घूमा जाए। नरेंद्र मोदी ने, विशेषकर 2002 के बाद, मीडिया में अपनी और गुजरात की छवि सुधारने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। दरअसल, 2002 के दंगों के एक वर्ष बाद...

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