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गांव मात्र वोटों से ज्यादा कुछ नहीं है- अनिल जोशी

जिस देश का अस्तित्व उसके गांवों से हो, वही नकारे जाएं, तो इससे बड़ी विडंबना कुछ नहीं हो सकती। देश में 8,800 शहर और 22,000 कस्बों की तुलना में साढ़े छह लाख गांव संख्या में कहीं ज्यादा हैं। देश की करीब 70 प्रतिशत आबादी आज भी गांवों में बसती है, और यह बड़ी संख्या ही इस देश की राजनीतिक दिशा तय करती है। राज्यों के मुख्यमंत्री व देश के प्रधानमंत्री इन्हीं...

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इस बार के चुनाव में खेती-किसानी मुद्दा क्यों नहीं है- हरवीर सिंह

इंदिरा गांधी के इमरजेंसी राज के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को जिस जनता पार्टी ने सत्ता से बेदखल किया, उसका चुनाव चिह्न हलधर था। उस चुनाव का एक नारा था, देश की खुशहाली का रास्ता खेतों और गांवों से होकर जाता है। साफ है कि तब राजनीति के केंद्र में किसान और गांव-देहात था। अब सोलहवीं लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। इस चुनाव में मध्यवर्ग,...

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जंगल के असल दावेदार- विनय सुल्तान

जनसत्ता 19 मार्च, 2014 : पिछले साल की दो घटनाएं इस देश में जल, जंगल और जमीन की तमाम लड़ाइयों पर लंबा और गहरा असर छोड़ेंगी। पहली घटना दिल्ली से दो हजार किलोमीटर की दूरी पर स्थित नियमगिरि की है। यहां ग्रामसभाओं ने एक सुर में अपनी जमीन ‘वेदांता’ के हवाले करने से इनकार कर दिया। इसके बाद वेदांता कंपनी को नियमगिरि छोड़ना पड़ा। नियमगिरि जल, जंगल और जमीन की...

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जीएम फसलों का ट्रायल रोकना ठीक नहीं: आईसीएआर

कृषि विशेषज्ञों ने कहा- अवैज्ञानिक तरीके से विरोध हो रहा है नई तकनीक का ट्रालय करने से पहले ही जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) फसलों को हानिकारक बताना सही नहीं है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के महानिदेशक डॉ. एस अय्यप्पन ने कहा कि जब बड़ी आबादी वाले तमाम विकासशील देश जीएम फसलों पर अनुसंधान कर रहे हैं, तब भारत में जीएम फसलों के ट्रालय...

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कृषि नीति और नीयत का संकट- अविनाश पांडेय समर

आंकड़ों की नजर से देखा जाये, तो भारतीय कृषि सहज बोध को धता बतानेवाली अजूबे सी दिखती है. कुछ इस तरह कि भारत की विकास दर के दहाई पार कर देश को अगली विश्व शक्ति बनाने के सपने दिखाने के ठीक बाद वैश्विक आर्थिक मंदी की चपेट में आते हुए ध्वस्त हो जाने पर कृषि क्षेत्र में सुधार ने ही संभाला था. और यह भी कि कुल आबादी के करीब 67...

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