असम बारूद के ढेर पर बैठा है. वहां की पार्टियां इसमें आग सुलगाकर वोट की रोटी सेंक रही हैं. बाकी देश आंख मूंदे बैठा है या सोच रहा है कि जब विस्फोट होगा, तब देखा जायेगा. समस्या पुरानी है, लेकिन संदर्भ नया है. विदेशी अाप्रवासियों का सवाल कई दशकों से असम का नासूर बना रहा है. आजादी के बाद से ही राज्य में देश के भीतर और बाहर दोनों तरफ...
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पितृसत्ता का हिंसात्मक उत्सव--- राजू पांडेय
जब महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने पिछले साल बयान दिया था कि बलात्कार के मामलों में भारत उन चार देशों में सम्मिलित है, जहां सबसे कम बलात्कार होते हैं, तो उनकी बड़ी आलोचना हुई थी। हालांकि मेनका गांधी का कथन अंशत: सही था। प्रति एक लाख जनसंख्या पर होने वाले बलात्कार के प्रकरणों की दर की बात करें तो भारत में इसकी दर 2.6 है। उनतीस अन्य...
More »महाराष्ट्र के संदेश को सुनिए-- शशि शेखर
पिछले दिनों आधे से अधिक महाराष्ट्र को जातीय हिंसा की आग ने जिस तेजी से अपनी चपेट में लिया, उससे आशंकित और आतंकित होना लाजिमी है। इस दौरान उन्माद में अंधे हो रहे लोगों ने पाठशाला से घर लौट रहे मासूमों की बसों तक पर पथराव किया। भय से कंपाते बच्चों को अपने सहपाठियों के यहां शरण लेनी पड़ी। उधर, उनके मां-बाप मुंबई महानगर के मुख्तलिफ हिस्सों में बेबसी जीने...
More »प्रधानमंत्री का कहा और सत्य-- कुमार प्रशांत
स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले के अायोजन से जुड़े एक बड़े अधिकारी ने कार्यक्रम की समाप्ति के बाद राहत की गहरी सांस ली थी अौर मुझसे जो कहा, उसका मतलब इतना ही था कि चलो, अपना काम पूरा हुअा; अब किसने क्या अौर कैसा कहा, यह सब अाप लोग जानते-छानते रहो. हम सबने मिल कर देश को एक ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया है, जहां सार्वजनिक कुछ भी...
More »डिजिटल मीडिया का सच-- अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी
भारतीय लोकतंत्र की व्यापक परिधि में आज भी वह परिपक्वता नहीं है, जो किसी स्वस्थ समाज और लोक कल्याणकारी राज्य के लिए आवश्यक है। समाज में गरीबी, कम शिक्षा दर, सांप्रदायिक सोच, जातीय उन्माद, जेंडरगत कुंठा, व्यक्तिगत स्वार्थपरता और पूंजी के शातिराना खेल ने जिस परिवेश को बढ़ाया है, उसमें लोकतांत्रिक मूल्यों का लगातार क्षरण हो रहा है। जबकि देश में मीडिया के प्रति विश्वसनीयता की लंबी परंपरा रही है।...
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