संधिकाल की बेला है, न जाने कितनी लंबी खिंचेगी. यह नखलिस्तानों की तलाश नहीं, मरीचिकाओं में भटकने का दौर है. हकीकत कुछ और, मगर बताया जाता है कुछ और. हर टैक्स मूलतः जनता से धन छीन कर सत्ता की तिजोरी भरता है. सरकार अगर जनोन्मुखी न हो, तो जनता का इससे प्रत्यक्ष रूप से कोई भला नहीं होता, खासकर तब, जब उसे उसकी आय या मुनाफे पर नहीं, बल्कि वस्तुओं...
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देश को पहले NPA से निपटने की जरूरत : रघुराम राजन
मुंबई: रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने देश को ठोस घरेलू नीतियों तथा सुधारों की राह पर बनाए रखने की जरुरत पर बल देते हुए कहा है कि ऋण की वृद्धि की समीक्षा करने से पहले बैंकों की संपत्ति की गुणवत्ता (ऋण वसूली के संकट) से निपटने की जरुरत है. रिजर्व बैंक द्वारा आज जारी वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट (एफएसआर) की प्रस्तावना में राजन ने कहा है, ‘‘बैंकिंग क्षेत्र का...
More »सरकारी बैंकों का अंधेरा कुआं-- भरत झुनझुनवाला
वित्त मंत्री ने चिंता जतायी है कि सरकारी बैंकों द्वारा दिये गये लोन बड़ी मात्रा में खटाई में पड़ रहे हैं. इससे अर्थव्यवस्था पर संकट मंडराने लगा है. याद करें कि 2008 में अमेरिकी बैंकों पर संकट उत्पन्न हो गया था. उन्होंने बड़ी मात्रा में लेहमन ब्रदर्स जैसी कंपनियों को लोन दिये थे. लेहमन ब्रदर्स लोन को वापस नहीं दे पाया था. और अमेरिकी अर्थव्यवस्था चरमरा गयी थी. इसी प्रकार...
More »बैंकरप्सी बिल : द इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड लोकसभा में पारित
किसी कारोबारी द्वारा बैंकों का कर्ज चुकता न किये जाने से न सिर्फ बैंकों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था भी कमजोर होती है. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के नुकसान की भरपाई अंततः सरकारी खजाने से करनी पड़ती है. यह खजाना देश की सामूहिक आय, नागरिकों द्वारा दिये गये कर और बचत की राशि से बनता है. इसका मतलब यह है कि...
More »खुली आंखों से घाटे का सौदा - मोहन गुरुस्वामी
अव्वल तो यही कि हम अपनी धारणाओं को दुरुस्त कर लें। मसलन, विजय माल्या का ही मामला लें तो पाएंगे कि आम धारणा यह है कि माल्या ने शानो-शौकत की जिंदगी बिताने के लिए बैंकों को भरमाकर 9000 करोड़ रुपयों तक का कर्ज ले लिया और जब कर्ज का बोझ बढ़ गया और चुकतारे का कोई रास्ता नजर आना बंद हो गया तो वह भारत छोड़कर फुर्र हो गया। लेकिन...
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