SEARCH RESULT

Total Matching Records found : 116

न्याय की चौखट से न्याय की आस-- अनूप भटनागर

विडम्बना ही है कि महिलाओं को समान अधिकार दिलाने और उनके हितों की रक्षा के लिये प्रयत्नशील न्यायपालिका में महिलायें अभी भी समुचित प्रतिनिधित्व से वंचित हैं। संसदीय समिति बार-बार महिला न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि करने की सिफारिश कर रही है। देश के 24 उच्च न्यायालयों में कार्यरत 673 न्यायाधीशों में इस समय सिर्फ 73 महिला न्यायाधीश हैं जबकि अधीनस्थ न्यायपालिका में कार्यरत 15959 न्यायाधीशों में 4409 महिला न्यायाधीश...

More »

आधी आबादी का संघर्ष-- डा. अनुज लुगुन

तारीखें कैलेंडर में टंगी चुप्पी साधी चीज नहीं होती हैं, यह तो इतिहास के सबल साजो-सामान और विचार को हमारी आंखों के आगे चस्पा कर उस भार का एहसास दिलाती रहती हैं, जो पूर्वजों के कंधों से होकर हमारे वर्तमान में प्रवेश कर जाती हैं. फर्क इस बात का पड़ता है कि हम यूं ही कैलेंडर के पन्ने पलट देते हैं या उसे पढ़ पाते हैं. ऐसे ही 08 मार्च,...

More »

लोकतंत्र में महिलाएं और मजलूम-- शशिशेखर

अंधी राजनीति ने किस तरह भारत के जागृत समाज को राजनीति से अलग कर दिया है, इसका जीता-जागता उदाहरण उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों में हुए चुनाव हैं। मैं यहां किसी पार्टी अथवा नेता की हार-जीत की बजाय उस प्रवृत्ति का विश्लेषण करना चाहूंगा, जिसने ‘गनतंत्र' को पोसा और ‘गणतंत्र' को लगातार नुकसान पहुंचाया। नगालैंड से बात शुरू करता हूं। देश का यह बेहद संवेदनशील प्रांत गरीबी और पिछड़ेपन से जूझता...

More »

ऐसे तो नहीं बचेंगी बेटियां-- रीता सिंह

नीति आयोग का यह खुलासा चिंतित करने वाला है कि देश के इक्कीस बड़े राज्यों में से सत्रह राज्यों में जन्म के समय लिंगानुपात में गिरावट दर्ज हुई है। नीति आयोग ने अपनी ‘हेल्दी स्टेट्स एंड प्रोग्रेसिव इंडिया' रिपोर्ट में कहा है कि सबसे चिंताजनक हालत गुजरात की है जहां सबसे ज्यादा तिरपन अंकों की गिरावट दर्ज हुई है। जबकि हरियाणा में पैंतीस अंक, राजस्थान में बारह अंक, उत्तराखंड में...

More »

गरीबी नहीं गैरबराबरी है चुनौती-- मृणाल पांडे

एक जमाना था, जब कक्षा से चुनावी भाषणों तक में ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है?' जैसे जुमले सुनने को मिलते थे. भला हो राग दरबारी के लेखक श्रीलाल शुक्ल का, जिन्होंने इस उपन्यास के मार्फत आजादी के बाद हमारे बदहाल गांवों की असलियत दिखाकर इस पाखंड पर ऐसी चोट की कि पढ़ने-लिखनेवाले लोग इस भावुक और निरर्थक मुहावरे से बचने लगे. फिर ‘90 के दशक में आर्थिक उदारीकरण...

More »

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close