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न्यूज क्लिपिंग्स् | लोकतंत्र में महिलाएं और मजलूम-- शशिशेखर

लोकतंत्र में महिलाएं और मजलूम-- शशिशेखर

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published Published on Mar 5, 2018   modified Modified on Mar 5, 2018
अंधी राजनीति ने किस तरह भारत के जागृत समाज को राजनीति से अलग कर दिया है, इसका जीता-जागता उदाहरण उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों में हुए चुनाव हैं। मैं यहां किसी पार्टी अथवा नेता की हार-जीत की बजाय उस प्रवृत्ति का विश्लेषण करना चाहूंगा, जिसने ‘गनतंत्र' को पोसा और ‘गणतंत्र' को लगातार नुकसान पहुंचाया।


नगालैंड से बात शुरू करता हूं। देश का यह बेहद संवेदनशील प्रांत गरीबी और पिछड़ेपन से जूझता रहा है। यहां की प्रति-व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत 1,11,782 के मुकाबले 89,607 रुपये है। अब जरा यहां के प्रत्याशियों की औसत संपत्ति पर नजर डाल देखिए। चुनावी जंग के कुल 196 जंगजुओं में 114 करोड़पति थे और प्रति प्रत्याशी औसत संपत्ति 3.76 करोड़ रुपये थी। 60 उम्मीदवार ऐसे थे, जो करोड़पति भले ही न हों, पर उनके पास 50 लाख रुपये से अधिक की धन-संपदा है। इनमें भी सेनिस सीट से जनता दल यूनाइटेड के उम्मीदवार रामोंगो लोथा सर्वाधिक धनवान पाए गए। उन्होंने 38.92 करोड़ रुपये की संपत्ति की घोषणा की है।


और तो और, 60 सदस्यीय विधानसभा के लिए जिन 196 लोगों ने पर्चा दाखिल किया था, उनमें से महज पांच महिलाएं थीं। नगालैंड की राजनीति में औरतों की दयनीय स्थिति की पराकाष्ठा तो यह है कि आज तक राज्य विधानसभा के लिए एक भी महिला उम्मीदवार नहीं जीती। 1977 में रानो एम शैजा ने लोकसभा की लड़़ाई जरूर जीती थी, पर यह गौरव उसके बाद किसी अन्य महिला को नहीं मिला। महिलाओं को बराबरी का हक-हुकूक देने के हामी आदिवासियों से भरे-पूरे इस प्रदेश में शहरी निकाय चुनावों में औरतों को 33 फीसदी आरक्षण देने का भी प्रबल हिंसक विरोध हुआ था।


बताने की जरूरत नहीं कि उत्तर-पूर्व के सात राज्यों को ऐतिहासिक तौर पर सतबहिनी कहा जाता है। इनके दो राज्यों मेघालय और त्रिपुरा की स्थिति भी अच्छी नहीं है। मेघालय में खासी जाति का खासा बोलबाला है। यह मातृवंशीय यानी महिलाओं के प्रभुत्व को सिर-माथे पर रखने वाली जनजाति है। जानने वाले जानते हैं कि खासी समुदाय में पुरुष को शादी के बाद अपनी पत्नी के घर जाना पड़ता है और उसकी संतान मां का उपनाम धारण करती हैं। यही नहीं, पैतृक संपत्ति की हकदार परिवार की सबसे छोटी बेटी होती है। किसी कुटुंब में यदि कन्या का जन्म न हो, तो उसे एक बेटी गोद लेनी पड़ती है। महिलाओं का इससे बेहतर बोलबाला और कहीं नहीं हो सकता, पर लोकतंत्र में उनकी भागीदारी देखिए- मेघालय के कुल 372 उम्मीदवारों में महज 33 महिलाएं थीं। यहां भी 152 करोड़पति चुनाव लड़ रहे थे और प्रति उम्मीदवार औसत आमदनी 3.5 करोड़ रुपये थी। सबसे अमीर उम्मीदवार नगैतलांग धर, उमरोई से नेशनल पीपुल्स पार्टी के उम्मीदवार थे। उनके पास लगभग 290 करोड़ रुपये की संपत्ति है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के शोधकर्ताओं ने इस मामले में त्रिपुरा को अपेक्षाकृत बेहतर पाया। यहां 297 उम्मीदवारों में 35 करोड़पति थे और प्रत्याशियों की औसत संपत्ति 46.92 लाख रुपये थी। महिलाओं का औसत यहां भी दयनीय है। कुल जमा 20 महिला उम्मीदवारों ने यहां से परचे दाखिल किए थे।


इनमें से कौन जीता या हारा, इससे फर्क नहीं पड़ता, पर यह सवाल जरूर उठता है कि क्या ऐसी विधानसभा समूची आबादी की प्रतिनिधि मानी जा सकती है, जहां महिलाएं अभी तक अपना उचित स्थान नहीं हासिल कर सकी हैं? मेरी तरह आपके दिमाग में भी यह सवाल कौंध रहा होगा कि लखपति और करोड़पति विधायकों से भरी विधानसभा मजलूमों के पक्ष में कितने फैसले ले पाएगी? समाज और राजनीति की यह दूरी निश्चित तौर पर जम्हूरियत के लिए खतरनाक है।


इन तीनों राज्यों में अलगाववाद के विषाणु मौजूद हैं, इसलिए यहां लंबे समय तक लोकतंत्र के नाम पर ‘गनतंत्र' का बोलबाला रहा है। मैंने 1990 के दशक में मणिपुर और नगालैंड के सुदूर इलाकों की विस्तृत यात्रा के दौरान पाया था कि नई दिल्ली द्वारा आवंटित अरबों रुपये विकास की बजाय अफसरों और नेताओं का गठजोड़ डकार जाता है। स्थानीय पुलिस और अर्द्धसैनिक बल इन्हें रोकने की बजाय उनके बगलगीर बने हुए थे। मतलब साफ है, जिसके हाथ में बंदूक, उसी की जेब में पैसा। बंदूकें लाभ या हानि के मामले में अराजक समूहों और वर्दीधारियों में भेद नहीं करतीं। आदिवासियों से भरे इस दुर्गम इलाके में इस नापाक गठजोड़ ने कई खतरे पैदा कर दिए हैं।


आदम और हव्वा की संतानों में सिर्फ आदिवासी बचे हैं, जो आज भी समानता और सह-अस्तित्व को छोड़ने को तैयार नहीं। राजनीति का खेल देखिए, पूर्वोत्तर के प्रदेशों में यह नेपथ्य के हवाले हो गया और सत्ता के ठेकेदार हर तरफ काबिज हो गए। आप चाहें, तो इस बेहद खूबसूरत भूभाग की तुलना धरती की जन्नत कश्मीर से कर सकते हैं। वहां भी ‘गनतंत्र' ने लोक के अधिकारों को समान भाव से लीला, नतीजा सबके सामने है।


इसे आप आम हिन्दुस्तानी की हतभागिता नहीं, तो और क्या मानेंगे कि महिलाओं और मजलूमों की नुमाइंदगी के मामले में संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र अभी तक सिर्फ औसत दरजे का साबित हुआ है? आप मौजूदा लोकसभा का गठन देखें। 16वीं लोकसभा के माननीय सदस्यों की औसत संपदा 14 करोड़ रुपये है और 525 में से कुल 442 सांसद करोड़पति हैं। आंध्र प्रदेश के गुंटूर से निर्वाचित जयदेव गल्ला सबसे अमीर हैं। उन्होंने 683 करोड़ की धन-संपत्ति घोषित की थी। तृणमूल कांग्रेस के टिकट से चुनी गईं उमा सरीन ‘सबसे गरीब' कही जा सकती हैं। उन्होंने 4.99 लाख की संपत्ति दर्शाई थी। हिसाब लगाकर देख लीजिए, हमारे सांसदों और आम आदमी की माली हालत में कितना फासला है? जिस देश में करोड़ों लोग खाली पेट सोने को अभिशप्त हों, वहां यह आंकड़ा चौंकाता नहीं है क्या?


हालांकि, 16वीं लोकसभा महिलाओं के मामले में 15वीं के मुकाबले बेहतर साबित हुई है। पिछली बार की 58 के मुकाबले इस बार 62 महिलाएं यहां अपनी हाजिरी दर्ज कराने में सफल रहीं, पर यह काफी नहीं है। जिस देश में 49 प्रतिशत औरतें हों, वहां सिर्फ 11.3 फीसदी महिला सांसद! जाहिर है, अभी हमारी जम्हूरियत को लंबी दूरी तय करनी है। उत्तर-पूर्व के राज्यों के लिए तो यह और भी शर्म का विषय है। जिस भूभाग में महिलाओं को मर्द के मुकाबले श्रेष्ठ माना जाता रहा हो, जहां गरीबी का अभिशाप अपेक्षाकृत और गहरा हो, वहां यह हाल?


इसलिए उत्तर-पूर्व के नवनिर्वाचित विधायकों को बधाई देने के साथ मैं उनसे पूछना चाहूंगा कि वे इस स्थिति में बदलाव के लिए क्या करेंगे? उन्हें मानना ही होगा, राजनीति ने इन प्रदेशों को दुर्गति की मांद में धकेला और सिर्फ राजनीतिज्ञ ही उसे इस सड़ांध से बाहर निकाल सकते हैं।


https://www.livehindustan.com/blog/editorial/story-shashi-shekhar-article-aajkal-in-hindustan-on-4-march-1831170.html


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