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शिक्षा केंद्र, बुद्धिजीवी और सत्ता- आनंद कुमार

जनसत्ता 25 सितंबर, 2013 : किसी भी लोकतांत्रिक समाज में सरकार और शिक्षा केंद्रों के बीच का संबंध हमेशा एक सृजनशील तनाव से निर्मित होता है। सरकार की तरफ से शायद ही कभी ऐसा प्रयास हो, जिसमें शिक्षा केंद्रों को अधिकतम स्वायत्तता मिलती है, क्योंकि सरकार शिक्षा केंद्रों में चल रहे ज्ञान-मंथन, तथ्य-विश्लेषण और विद्वानों की स्वतंत्र शोध-क्षमता से सशंकित रहती है। सरकार का काम हमेशा कुछ आधा और कुछ पूरा-...

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आधार कार्ड अनिवार्य नहीं -

सब्सिडी वाले सिलेंडर या किसी अन्य सरकारी लाभकारी योजना का लाभ पाने के लिए आपको आधार कार्ड बनवाने की जरूरत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को यह आदेश दिया। इससे सरकार की सभी लोगों को ‘आधार नंबर’ देने की योजना को तगड़ा झटका लगा है। अवैध नागरिकों को न मिले: जस्टिस बीएस चौहान और एएस बोब्डे की पीठ ने सरकार से यह भी कहा कि इस बात का ध्यान रखा जाए...

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केंद्रीय परियोजनाओं को भूअधिग्रहण लॉ से बाहर करने का विरोध

विरोध प्रावधान का नये कानून के बाद जो आर्थिक बोझ बढ़ेगा उसका केंद्रीय परियोजनाओं पर असर नहीं किंतु एक साल के अंदर इन सभी परियोजनाओं में भूमि अधिग्रहण पूरा करना होगा इस समय सीमा के बाद इस क्षेत्र के परियोजनाओं पर भी नया कानून ही लागू होगा केंद्र की व्यवस्था, नए बिल का भार तुरंत न पड़े मध्य प्रदेश सरकार ने नये भूमि अधिग्रहण कानून के...

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मरती भाषाओं के दौर में- शेखर पाठक

जनसत्ता 13 सितंबर, 2013 : कभी रघुवीर सहाय ने कहा था, ‘न सही कविता मेरे हाथ की छटपटाहट सही’। यही बात भाषा के बारे में कही जा सकती है। सिर्फ मनुष्य अपनी छटपटाहट को भाषा यानी शब्द दे सका है। यह कहानी सत्तर हजार साल पहले शुरू होती है, हालांकि लिपियों का संसार करीब पांच हजार साल पहले बनना शुरू हुआ। आज भाषा मानव अस्तित्व की अनिवार्यता और पहचान हो...

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गए गुरुजी काम से- राहुल कोटियाल

गया वह ज़माना जब शिक्षक पढ़ाया करते थे. अब उन्हें छत्तीस सरकारी कामों के लिए नौकरी पर रखा जाता है. राहुल कोटियाल की रिपोर्ट. 'वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है.’ यह टिप्पणी प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल ने अपने सबसे चर्चित उपन्यास 'राग दरबारी' में की थी. यह उपन्यास आज से लगभग पचास साल पहले लिखा गया था. यह वह दौर था जब...

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