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'आरटीआई संज्ञा नहीं अब क्रिया हो गई है' दैनिक हिन्दुस्तान के विशेष संवाददाता श्याम सुमन की प्रस्??

देश के इतिहास में आरटीआई ऐक्ट एक ऐसा कानूनी दस्तावेज है, जो जनता का राज सुनिश्चित करता है। इस कानून ने नागरिकों को अधिकारों से लैस किया है, जिससे सरकारी तंत्र की नींद टूटी है और उसे जनता के प्रति अपनी जवाबदेही का अहसास हुआ है। लेकिन इन अधिकारों से अब सरकार कुछ परेशान-सी दिख रही है और सरकार में यह मत बनने लगा है कि इस कानून की समीक्षा...

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कुछ लोग कानून से परे क्यों? : गुरचरन दास

सितंबर की उस तपती हुई दोपहर को जब मुख्य और जिला सत्र न्यायाधीश एस कुमारगुरु ने निर्णय सुनाना शुरू किया, तब धर्मपुरी (तमिलनाडु) के उस खचाखचभरे कोर्टरूम में खामोशी पसरी हुई थी। न्यायाधीश ने 3.30 बजे निर्णय सुनाना प्रारंभ किया था, लेकिन यह प्रक्रिया लगभग एक घंटे तक जारी रही, क्योंकि उन्हें उन 215 सरकारी अधिकारियों के नाम पढ़कर सुनाने थे, जिन्हें दोषी ठहराया गया था। उन 12 अधिकारियों को...

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निर्धनता का विचित्र पैमाना- संजय गुप्त

उच्चतम न्यायालय में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियां दूर करने के मामले की सुनवाई के सिलसिले में योजना आयोग के इस हलफनामे ने देश को चौंका दिया कि शहरी क्षेत्रों में प्रतिदिन 32 और ग्रामीण इलाकों में 26 रुपये खर्च करने वाले लोग गरीबी रेखा से ऊपर माने जाएंगे। इस हलफनामे से योजना आयोग के साथ-साथ केंद्र सरकार की भी फजीहत हुई। इस हलफनामे को लेकर सबने सरकार को कोसा।...

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गोदान : किसान की शोकगाथा--- . गोपाल प्रधान

  ‘गोदान’ के प्रकाशन के 75 साल पूरे हो गए हैं लेकिन भारत का देहाती जीवन आज भी लगभग उन्हीं समस्याओं और चुनौतियों से घिरा दिखता है जिनका वर्णन मुंशी प्रेमचंद के इस कालजयी उपन्यास में हुआ है. गोपाल प्रधान का आलेख    सन 1935 में लिखे होने के बावजूद प्रेमचंद के उपन्यास 'गोदान' को पढ़ते हुए आज भी लगता है जैसे इसी समय के ग्रामीण जीवन की कथा सुन रहे हों....

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निर्णायक प्रतिरोध का समय : चेतन भगत

हम सभी का सामना किसी ऐसे ‘अंकल’ से हुआ होगा, जो समय-समय पर हमें याद दिलाते रहते हैं कि इस देश का भगवान ही मालिक है। उनकी हर बात का लब्बोलुआब यह रहता है कि भारत एक भ्रष्ट और नाकारा देश है, जहां जिंदगी गुजारना मुश्किल है। वे हमें बताते हैं कि आरटीओ से लेकर राशन की दुकान और नगर पालिका तक हर सरकारी अधिकारी घूस खाता है। वे हमें यह भी...

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