कभी हमारे घरों को अपनी चीं..चीं से चहकाने वाली गौरैया अब नजर नहीं आतीं हैं। करीब 10 सालों से यह घरेलू पक्षी शहर से विलुप्त हो चुकी है। गांवों की तरफ भी कभी- कभार चहचहाहट सुनाई पड़ती है। घरों की बदलती डिजाइन, इलेक्ट्रिक पंखे समेत कई ऐसे कारण हैं जो नन्हीं गौरैया को बेदखल करने के लिए जिम्मेदार है। वन विभाग ने भी कभी इनके संरक्षण की दिशा में ठोस...
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अब भी हो रही पर्यावरण की अनदेखी - डॉ. भरत झुनझुनवाला
राज्यों के पर्यावरण मंत्रियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था कि पर्यावरण और विकास को साथ-साथ चलाया जा सकता है। बात सही है। आइए देखें कि सरकार इन दोनों उद्देश्यों को किस प्रकार एक साथ हासिल कर रही है। देश के पर्यावरण कानूनों की समीक्षा करने को मोदी सरकार ने पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में एक उच्च-स्तरीय कमेटी गठित की थी। कमेटी में पर्यावरण से...
More »जंगल के असल दावेदार- विनय सुल्तान
जनसत्ता 19 मार्च, 2014 : पिछले साल की दो घटनाएं इस देश में जल, जंगल और जमीन की तमाम लड़ाइयों पर लंबा और गहरा असर छोड़ेंगी। पहली घटना दिल्ली से दो हजार किलोमीटर की दूरी पर स्थित नियमगिरि की है। यहां ग्रामसभाओं ने एक सुर में अपनी जमीन ‘वेदांता’ के हवाले करने से इनकार कर दिया। इसके बाद वेदांता कंपनी को नियमगिरि छोड़ना पड़ा। नियमगिरि जल, जंगल और जमीन की...
More »‘हमारे गांव में हम ही सरकार’- अतुल चौरसिया
महाराष्ट्र के मेढ़ा गांव का उदाहरण बताता है कि स्वाभिमान और स्वावलंबन के साथ आजीविका का अवसर मिले तो नक्सलवाद से जूझते इलाकों में खुशहाली का नया अध्याय शुरू हो सकता है. अतुल चौरसिया की रिपोर्ट. महाराष्ट्र के गढ़चिरोली की सबसे बड़ी पहचान फिलहाल यही है कि यह नक्सल प्रभावित जिला है. आदिवासी और जंगल की बहुलता वाले इस जिले की धनौरा तहसील में एक गांव है मेढा. मेढा और लेखा...
More »नियमगिरि के हकदार- कमल नयन चौबे
जनसत्ता 2 अगस्त, 2013: नियमगिरि में खनन की इजाजत देने की बाबत सर्वोच्च न्यायालय ने अठारह अप्रैल को दिए अपने फैसले में ग्रामसभा की मंजूरी लेने का आदेश दिया था। इस फैसले और इसके बाद के घटनाक्रम ने जल, जंगल, जमीन पर स्थानीय समुदायों के हक की लड़ाई के कई विरोधाभासों और उपलब्धियों को उजागर किया है। गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की मनमानी व्याख्या करते हुए ओड़िशा...
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