पश्चिम बंगाल में व्यापक चुनार्वी ंहसा न तो कोई नई बात है और न ही यह कोई अजूबा। बंगाल का भद्रलोक समाज राजनीतिक हिंसा को एक रूमानी रूप देता रहा है। यहां हर दौर में सिर्फ झंडे बदल जाते हैं, जबकि डंडे और उनके काम उसी तरह रहते हैं। कुछ लोग इसे इतिहास से भी जोड़कर देखते हैं। जंगे आजादी के बाद में जब भारत का बंटवारा हुआ, तो जो...
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मुस्लिम औरतों को धर्म के पिंजरे में सुरक्षित रहने की गारंटी कौन दे रहा है?-- फैयाज अहमद वजीह
औरत और आज़ादी, हमारे समाज में इन दो शब्दों का एक साथ उच्चारण गंदी, बेहूदा और बे-लगाम औरतों की कल्पना करने जैसा है. औरत का पढ़ा-लिखा, समझदार होना या विवेक-बुद्धि से काम लेने की उनकी योग्यता को मानना-पसंद करना तो अलग, उसे अक्सर गवारा करना भी गले में अटकी हुई हड्डी को निगलना है. बात वही सदियों पुरानी है कि बिस्तर की ज़ीनत हुक्म की बांदी ही भली... बराबरी और अधिकारों...
More »परीक्षा के अंक नहीं हैं जिंदगी का पैमाना- आशुतोष चतुर्वेदी
हाल में बिहार, झारखंड, सीबीएसइ और आइसीएससी बोर्ड के नतीजे आये हैं. साथ ही कई बच्चों के आत्महत्या करने की दुखद खबरें भी आयीं. ऐसी खबरें इसी साल आयीं हों, ऐसा नहीं हैं. ये खबरें साल-दर-साल आ रही हैं. दुर्भाग्य यह है कि अब ऐसी खबरें हमें ज्यादा विचलित नहीं करती हैं. कुछ दिन चर्चा होकर बात खत्म हो जाती है. गंभीर होती जा रही इस समस्या का कोई...
More »पुलिस का सबसे मुश्किल इम्तिहान- विभूति नारायण राय
वर्ष 1977 की शुरुआत। देश में सनसनी और उत्तेजना की बयार बह रही थी। किसी बडे़ अंधड़ की तरह आपातकाल देश को झिझोड़ता-झकझोरता गुजर चुका था और हम सभी विनाश की दृश्य और अदृश्य स्मृतियों को बुहारने में लगे थे। इसी समय देश का वह चुनाव हुआ, जिसने भारतीय समाज और राजनीति का परिदृश्य लंबे समय के लिए बदल दिया। यह वर्ष मेरे अनुभव संसार में भी बहुत कुछ जोड़ने...
More »कम नहीं चुनाव आयोग की शक्तियां- नवीन चावला
भारत में जाति पर बहस राजनीतिक परिणामों की एक निर्धारक है। यह वर्ष 2019 के आम चुनाव सहित भारत में तमाम चुनावों की एक रोचक विशिष्टता है। यह ऐसी निर्धारक है कि मतदाताओं के बीच अति लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी चुनाव अभियान में अपनी जातिगत पहचान बतानी पड़ती है। उत्तर और केंद्रीय भारत की ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों को किसी जाति या बिरादरी विशेष के लिए पहचाना जाता है।...
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