मैं 1988 के पूर्वार्द्ध में उत्तराखंड में शोध कर रहा था, जब उसी क्षेत्र में एक बहादुर नौजवान पत्रकार की हत्या की खबर आई। उसका नाम उमेश डोभाल था। उसने शराब माफिया, पुलिस, आबकारी विभाग व स्थानीय राजनेताओं की सांठगांठ का पर्दाफाश किया था। उसे शराब ठेकेदारों के भाड़े के हत्यारों ने मारा था। 1988 के उत्तरार्द्ध में मैं दिल्ली में रह रहा था, जब लोकसभा द्वारा प्रेस की आजादी को...
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स्त्री का मिथक गढ़ता टीवी-- सुजाता
एक वयस्क व्यक्ति से पूछा जानेवाला सबसे वाजिब सवाल है कि वह अपने जीवन का क्या करना चाहता है. लेकिन, भारतीय स्त्री को कभी इतना वयस्क समझा नहीं गया कि उससे यह सवाल पूछा जाये. बचपन से लेकर शादी के बाद तक उसे इस सवाल का जवाब खुद तलाशने की न इजाजत होती है न अवसर. उसे क्या बनना है और क्या करना है- यह परिवार, समाज, धर्म, स्कूल जैसी...
More »हमारी अम्मा, दीदी और बहनजी - मृणाल पांडे
हालिया चुनावों के नतीजों के साथ ही दो कद्दावर महिला मुख्यमंत्रियों (जयललिता और ममता बनर्जी) ने तमाम ऐतिहासिक साक्ष्यों को नकारते हुए दोबारा अपनी राजनैतिक ताकत का लोहा मनवा लिया। गुजरात में आनंदीबेन की कुर्सी फिलवक्त तो सुरक्षित लगती ही है। अब यदि उत्तर प्रदेश में भी अगले बरस बहिन मायावतीजी फिर सत्ता में आ जाती हैं, तो देश के चार महत्वपूर्ण राज्यों की कमान ताकतवर महिला मुख्यमंत्रियों के हाथों...
More »आजादी के बाद पहली बार इस गुमनाम गांव ने डाला वोट
कोलकाता। गुरुवार को पांच राज्यों में चुनाव के नतीजे आए। पश्चिम बंगाल में एक बार फिर ममता बनर्जी ने शानदार जीत दर्ज की और मुख्यमंत्री बनने जा रहीं हैं। बंगाल के इस महासमर में जहां पूरे राज्य ने मतदान किया वहीं एक गांव ऐसा भी था जिसके बाशिंदों ने आजादी के बाद पहली बार वोट डाला। यह गांव है कूचविहार जिले का मशाल डांगा गांव। भारत बांग्लादेश सीमा पर बसे इस...
More »आदिवासियत का लड़ाकू विचारक-- अनुज लुगुन
मराठी के वरिष्ठ आदिवासी कवि वाहरू सोनवाने ‘स्टेज' कविता में कहते हैं- ‘हम स्टेज पर गये ही नहीं/हमें बुलाया भी नहीं गया/उंगली के इशारे से हमारी जगह हमें दिखाई गयी/वे स्टेज पर खड़े होकर/हमारा दुख हमें ही बताते रहे.' यह कविता आदिवासी समाज को गैर-आदिवासियों द्वारा निर्देशित करने की यंत्रणादायी प्रक्रिया को बताती है. आदिवासियों को निर्देशित करने की औपनिवेशिक मंशा का प्रतिरोध करते हुए कई बार वाहरू जी कह...
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