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वैश्वीकरण बनाम आदिवासी- हरिराम मीणा

जनसत्ता 29 जुलाई, 2013: भूमंडलीकरण का यह वह दौर चल रहा है जब सारे प्राकृतिक संसाधनों का फटाफट और अंधाधुंध दोहन कर लिया जाए, हो सकता है फिर ऐसा सुनहरा अवसर इन कंपनियों को मिले या न मिले। नई आर्थिक नीति की चरम परिणति जन-विरोधी वैश्वीकरण के रूप में अब सामने आ रही है। बहुराष्ट्रीय निगमों, उनको मॉडल मानने वाले देशी पूंजीपतियों और प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट में लगे राजनीतिकों,...

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कोल-गेट से आगे: एक संस्था की नई रिपोर्ट

उर्जा संबंधी विश्लेषण के लिए प्रसिद्ध पुणे की संस्था प्रयास ने जनवरी में प्रकाशित अपने एक 42 पन्नों के अध्ययन में देश के कोयला-क्षेत्र से जुड़ी कई ऐसी बाते कही हैं जिनसे नीतिगत स्तर के सवाल उठते हैं और जिनका समाधान तुरंत किए जाने की जरुरत है। रिपोर्ट में कोयला-क्षेत्र के बारे में कही गई बातों में शामिल है- * कोल इंडिया लिमिटेड की एकाधिकार और उसका गैर-जिम्मेदार व्यवहार ।    * देश में मौजूद कोयला-भंडार...

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जनाक्रोश का अश्वमेधी घोड़ा- योगेंद्र यादव

जनसत्ता 7 जनवरी, 2012: जंतर मंतर से दूर दो छवियां मेरे मन में अटक गई हैं। पहली छवि मेरी कॉलोनी की लड़कियों और महिलाओं के छोटे-से प्रदर्शन की है। किसी के हाथ में मोमबत्ती है, किसी के हाथ में तख्ती। पल भर को हैरत हुई, क्योंकि इन महिलाओं को मैंने अब तक सात-सबेरे बच्चों को स्कूल-बस में चढ़ाते, जाड़े की धूप में स्वेटर बुनते या फिर दोपहर बाद के किसी भी...

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इस आंदोलन के निहितार्थ- आनंद प्रधान

जनसत्ता 3 जनवरी, 2012: दिल्ली की वह बहादुर लड़की शरीर और मन पर हुए प्राणांतक घावों के बावजूद जीना चाहती थी। देश के करोड़ों लोग भी यही चाहते थे। लेकिन वह लड़ते हुए एक शहीद की तरह चली गई। यह सही है कि वह भारतीय समाज में स्त्रियों के खिलाफ होने वाली बर्बर यौन हिंसा और भेदभाव की पहली शहीद नहीं है और न आखिरी। उसके जाने के बाद भी दिल्ली,...

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उदार पीढ़ी का उद्वेग- सुधीश पचौरी

जनसत्ता 4 जनवरी, 2012: पिछले करीब पंद्रह दिनों में एक युवा विमर्श प्रकट हुआ है, जो कई वजहों से  ऐतिहासिक है। उसके कारक, लक्ष्य और परिणाम नए हैं। वह प्रकटत: स्वत:स्फूर्त स्वभाव से असंगठित और अराजनीतिक प्रतीत होता है। वह ‘परदुख कातर’ है। पुलिस प्रशासन और सत्ता से अन्याय के बरक्स न्याय के सवाल कर रहा है। वह बर्बरता के विरोध में है। वह एक ऐसा नागरिक समाज चाहता है, जिसमें...

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