तारीखें कैलेंडर में टंगी चुप्पी साधी चीज नहीं होती हैं, यह तो इतिहास के सबल साजो-सामान और विचार को हमारी आंखों के आगे चस्पा कर उस भार का एहसास दिलाती रहती हैं, जो पूर्वजों के कंधों से होकर हमारे वर्तमान में प्रवेश कर जाती हैं. फर्क इस बात का पड़ता है कि हम यूं ही कैलेंडर के पन्ने पलट देते हैं या उसे पढ़ पाते हैं. ऐसे ही 08 मार्च,...
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आधी-अधूरी स्वायत्तता से साख को आंच -- विश्वनाथ सचदेव
वर्ष 1984 में जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी, उनके पुत्र राजीव गांधी बंगाल में किसी दूरदराज इलाके में थे। जब उन्हें यह सूचना मिली तो कहते हैं कि उन्होंने तत्काल रेडियो बीबीसी लगाकर सूचना की पुष्टि की थी। इस बात को बीबीसी की विश्वसनीयता के एक उदाहरण के रूप में याद किया जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि विश्वसनीयता के संदर्भ में लंबे अर्से तक बीबीसी द्वारा...
More »सिर्फ नियमों से नहीं लगेगी लगाम-- नीलंजन राजाध्यक्ष
भारतीय बैंकिंग की एक बुनियादी समस्या है, अनुचित इन्सेंटिव यानी प्रोत्साहन राशि। नीरव मोदी मामले के खुलासे के बाद हम बेशक वर्षों से कर्ज बांटने की खराब परिपाटी के कारण बैंकों की साख पर बन आए संकट पर अपना ध्यान केंद्रित करें, पर इन्सेंटिव पर भी कहीं अधिक गौर करने की जरूरत है। इस इन्सेंटिव समस्या को अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी, शॉन कोल और एस्थेर डूफ्लो ने एक शोध पत्र में बखूबी...
More »ज्ञान की ये कैसी अंधी-महंगी दौड़! - गिरीश्वर मिश्र
भारत में शिक्षा को एक रामबाण औषधि के रूप में हर मर्ज की दवा मान लिया गया और उसके विस्तार की कोशिश शुरू हो गई बिना यह जाने-बूझे कि इसके अनियंत्रित विस्तार के क्या परिणाम होंगे? सामाजिक परिवर्तन की मुहिम शुरू हुई और भारतीय समाज की प्रकृति को देशज दृष्टि से देखे बिना हस्तक्षेप शुरू हो गए। दुर्भाग्य से ये हस्तक्षेप अंग्रेजी उपनिवेश के विस्तार ही साबित हुए हैं। स्मरणीय...
More »शिक्षा, शिक्षक और समाज--- कारुलाल जमड़ा
पिछले दिनों एक समाचार के शीर्षक ने सभी का ध्यान आकर्षित किया- ‘देशमें डेढ़ लाख शिक्षक स्कूल नहीं जाते!' इस समाचार के चलते शिक्षकों की साख पर बट्टा लगा। यह अलग बात है कि कुछ समय पहले, शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिष्ठित एक एनजीओ ने अपनी विस्तृत शोध-रिपोर्ट में इसके ठीक विपरीत स्थिति बयान की थी और शिक्षकों की अनुपस्थिति का कारण उनका शैक्षणिक काम से ही अन्यत्र जाना बताया...
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