जनसत्ता 11 अप्रैल, 2014 : संसाधन घोटालों (कोयला, लोहा, गैस, तेल, रेत, जल, जंगल, जमीन) से बोझिल राजनीतिक वातावरण में, देश के शासन का ईमानदारी से संचालन, 2014 के चुनावी घोषणापत्रों की एक प्रमुख थीम है। तीस हजार करोड़ रुपए चुनाव में दांव पर लगाने वाले राजनीतिकों में होड़ है कि अगला ‘नमक का दारोगा’ कौन बनेगा! नमक जैसे सुलभ पदार्थ को औपनिवेशिक लूट का जरिया बनाए जाने की पृष्ठभूमि...
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पार्टियों के लिए भी क्यों ना हो खर्च की सीमा- सीताराम येचुरी
कई लोगों का कहना है कि चुनाव आयोग के एक लोकसभा सीट के लिए खर्च सीमा बढ़ाकर 70 लाख रुपये करने के बाद भी, सभी 542 चुनाव क्षेत्रों को मिलाकर जितना कुल जायज खर्चा बनता है, उससे अधिक तो भाजपा ने अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के प्रचार पर ही खर्च कर दिया होगा। इस चुनाव में जितने बड़े पैमाने पर धन तथा अन्य संसाधनों का इस्तेमाल किया जा रहा है, वह...
More »मीडिया की मर्यादा- सुशील कुमार महापात्र
मीडिया की समाज में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। मीडिया को लोकतांत्रिक व्यवस्था का चौथा स्तंभ भी कहा जाता है, क्योंकि इसकी जिम्मेदारी देश और लोगों की समस्याओं को सामने लाने के साथ-साथ सरकार के कामकाज पर नजर रखना भी है। लेकिन पिछले कुछ दिनों में मीडिया की कार्यप्रणाली और रुख पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। सवाल यह है कि क्या मीडिया बदल रहा है? क्या मीडिया के नैतिक...
More »पूंजीवाद का प्रपंच- सिद्धार्थ वरदराजन
नरेंद्र मोदी आखिर किसका प्रतिनिधित्व करते हैं, और भारतीय राजनीति में उनके उदय के क्या मायने हैं? 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों का बोझ अब भी उनके कंधों पर है। ऐसे में, सांप्रदायिक राजनीति के ऐतिहासिक उभार के तौर पर गुजरात के मुख्यमंत्री का राष्ट्रीय पटल पर उदय होते देखना खासा दिलचस्प रहेगा। संघ परिवार के वफादार और हिंदू मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा आज अगर उनका भक्त बना है,...
More »घोषणापत्रों में नजरंदाज होते किसान
चुनाव अभियान पूरे देश में जोर-शोर से जारी है, लेकिन इसमें न किसान कहीं दिख रहा है और न किसान की चिंता। जहां भारत की लगभग 60 प्रतिशत आबादी कृषि और उससे जुड़े उद्योगों पर निर्भर है, वहां उस तबके की उपेक्षा हैरान करने वाली है। यह भी खबर आ रही है कि इस बार प्रमुख पार्टियों का ध्यान उन 250 सीटों पर ही है, जिनके बारे में माना जा...
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