लगभग नब्बे बरस पहले हमारी दुनिया में प्लास्टिक नाम की कोई चीज नहीं थी. आज शहर में, गांव में, आस-पास, दूर-दूर जहां भी देखो प्लास्टिक ही प्लास्टिक अटा पड़ा है. गरीब, अमीर, अगड़ी-पिछड़ी पूरी दुनिया प्लास्टिकमय हो चुकी है. सचमुच यह तो अब कण-कण में व्याप्त है--शायद भगवान से भी ज्यादा! मुझे पहली बार जब यह बात समझ में आई तो मैंने सोचा कि क्यों न मैं एक प्रयोग करके देखूं-...
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उत्तराखंड के सबक- रोहित जोशी
जनसत्ता 21 जून, 2013: पिछले सालों में बरसात का मौसम उत्तराखंड के लिए तबाही का मौसम साबित हुआ है। अबके मानसून की पहली बारिश ही उत्तरकाशी, केदारनाथ, रुद्रप्रयाग, चमोली, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा और बागेश्वर में बादल फटने, बाढ़ और भूस्खलन का मंजर लेकर आई है। जबकि अभी बरसात का पूरा मौसम बाकी है। यों तो आंख मूंद कर इन आपदाओं को सिर्फ प्राकृतिक माना जा सकता है और आपदा-राहत में...
More »श्रम में खोता बचपन
बाल श्रम हमारे समय की एक दुखद सच्चई है. तरक्की के तमाम दावों के बावजूद आज हम उद्योग-धंधों से लेकर घर के भीतर तक पूरी दुनिया में किसी न किसी रूप में बाल श्रमिकों को देख सकते हैं. इसकी रोकथाम के लिए बेशक कई कानूनी प्रावधान किये गये हों, लेकिन पिछड़े क्या विकसित कहे जाने वाले समाजों तक में लाखों बच्चों का बचपन पेट की भूख मिटाने में दफन हो जाता है. वर्ल्ड...
More »मासूम गिरोहों की दिल्ली- प्रियंका दुबे
समाज व व्यवस्था की उदासीनता और वयस्क अपराधियों की सक्रियता की वजह से दिल्ली में बच्चों के कई आपराधिक गिरोह पनप रहे हैं. प्रियंका दुबे की रिपोर्ट. गर्मियों की एक दोपहर. नई दिल्ली रेलवे स्टेशन. नई-दिल्ली-गुवाहाटी राजधानी एक्सप्रेस अपनी यात्रा पूरी कर चुकी है. यात्रियों को प्लेटफॉर्म पर उतारने के बाद खाली हो चुकी ट्रेन धुलाई-सफाई के लिए रेलवे स्टेशन के पीछे बने यार्ड की तरफ बढ़ रही है. अचानक एक कोच...
More »भारतीय कंपनियों के बार्डरुम में दलित कहां हैं?
सोचकर बताइए कि स्टॉक-एक्सचेंज में सूचीबद्ध भारत की निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी कंपनियों के बोर्डरुम में दलित या फिर आदिवासी समुदाय के व्यक्ति कितने फीसदी होंगे ? हैरतअंगेज चाहे जितना लगे लेकिन आंकड़ा कहता है लगभग ना के बराबर यानि शून्य। डी अजित, हान डोनकर और रवि सक्सेना द्वारा किए एक अध्ययन का खुलासा है कि एक ऐसे वक्त में जब जातीय और नस्ली गैरबराबरी के मुद्दे पूरी...
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