नई दिल्ली [अंशुमान तिवारी]। केंद्र सरकार ने अपने खर्च के नए तरीके से घोटालों को सुविधाजनक कर दिया है। विकास के मदों में सरकार का करीब 79 फीसद खर्च अब अनुदानों के जरिये होता है। अनुदानों के इस्तेमाल को जानने का सरकार के पास कोई भरोसेमंद तरीका नहीं है। इसलिए करदाताओं और कर्ज से मिले इस सरकारी पैसे की लूट सहज हो गई है। केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद के ट्रस्ट में...
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नकद पैसे का खेल- बनवारी
जनसत्ता 14 फरवरी, 2013: मनमोहन सिंह सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि गरीबी एक आर्थिक और राजनीतिक समस्या के बजाय अब केवल वित्तीय समस्या रह गई है। केंद्र सरकार की प्राथमिक चिंता अब न बेरोजगारी है, न महंगाई। देश की इन दो सबसे बड़ी समस्याओं से मुंह चुराने का उसने एक आसान उपाय निकाल लिया है। देश के गरीब लोगों के हाथ में दमड़ी रख दो; इससे सरकार के कल्याणकारी...
More »कर ढांचे की कमजोर कड़ियां- अभिनव श्रीवास्तव
जनसत्ता 8 फरवरी, 2013: बीते दिनों जब प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार सी रंगराजन ने सकल घरेलू उत्पाद के मुकाबले कर-अनुपात बढ़ाने के लिए अमीरों पर ऊंची दर से कर लगाए जाने की बात कही तो उनका यह बयान सीधे तौर पर दो घटनाओं से प्रभावित रहा होगा। पहली घटना का संबंध अमेरिका से है, जहां पिछले बीस सालों में पहली बार अमेरिकी सीनेट ने अमीरों पर कर बढ़ाने के प्रस्ताव को...
More »इंसानी दिमाग में छुपी है दुर्दात अपराधियों की पहचान
नई दिल्ली [नितिन प्रधान]। लंबी कशमकश के बाद सरकार ने डीजल पर सब्सिडी खत्म करने की तरफ कदम बढ़ा ही दिया। जरूरतमंदों तक सब्सिडी पहुंचे, इसके लिए प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण [डीबीटी] की भी शुरुआत हो गई। अब सरकार तय कर चुकी है कि खजाने पर से सब्सिडी का बोझ घटाना है। मगर खाद्य सुरक्षा जैसे बड़े मोर्चे पर कदम बढ़ाकर सरकार ने यह संकेत भी दे दिए हैं कि राजनीतिक...
More »समझदारी का मोतियाबिंद
जनसत्ता 4 फरवरी, 2013: गार्गा चटर्जी इस घड़ी आशीष नंदी होना आफत को गले लगाना है। तकनीक के इस ताबड़तोड़ दौर में जहां बोले गए शब्द ध्वनि की रफ्तार को पछाड़ रहे हों, उनका अर्थ पीछे छूटता जा रहा, तो यह देख कर जरा भी अचरज नहीं होता कि साहित्य के एक समारोह में आशीष नंदी के ‘जातिसूचक’ शब्दों को कुछ विवाद प्रेमी लोग लपक लें। असल में सांप्रदायिकता के छद्म विरोध...
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