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देश की औरतें जब बोलती हैं तो शहर-शहर शाहीन बाग हो जाते हैं

शाहीन बाग में चल रहे प्रदर्शन को एक महीने से ज़्यादा वक्त बीच चुका है। इस बीच दिल्ली के पारे का रिकॉर्ड कई बार टूटा, सत्ता का दमनचक्र कई बार आक्रामक हुआ, आंदोलन को भटकाने की कई बार कोशिश की गई, मामला हाईकोर्ट तक पहुंचा, दिल्ली के एक वर्ग को एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून से अधिक परेशानी ट्रैफिक से होने लगी लेकिन शाहीन बाग की औरतें आज भी डटी...

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झाबुआ के हलमा को गहराई से देखने की कोशिश कीजिए, वर्ल्ड बैंक उथला नज़र आएगा

वह भीषण गर्मी का महीना था, साल 1998, तारीख थी 11 मई, उस दिन पोखरण में ‘बुद्ध मुस्कराए’ थे. इस मुस्कुराहट का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि दुनिया के तमाम ताकतवर देश मुस्कराना भूल गए. आनन-फानन में कई प्रतिबंध भारत पर लगा दिए गए. अमेरिकी दबाव इस कदर था कि भारत के पुराने दोस्त रूस ने भी हमें क्रायोजनिक इंजन देने से मना कर दिया. उस समय भारत के प्रधानमंत्री...

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स्वधार गृहः महिला उत्पीड़न केंद्र!

देश की राजधानी में बेसहारा महिलाओं के लिए बने 14 शेल्टर होम्स को लेकर अक्तूबर के आखिरी हक्रते में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टिस) ने 143 पन्नों की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट जारी की. इस रिपोर्ट के मुताबिक, यहां रहने वाली महिलाओं का बर्बरता की हद तक यौन उत्पीडऩ हो रहा है. टिस की ऐसी ही रिपोर्ट के बाद 2018 में मुजफ्फरपुर के बालिका गृह में नाबालिग लड़कियों के...

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गरीबों के जीवन का अर्थशास्त्र-- नीरंजन राजाध्यक्ष

सड़क पर डोसा बेचने वाली महिला के पास एक भूखे अर्थशास्त्री के जाने का जिक्र भला क्यों होगा, जब तक कि वह अर्थशास्त्री अभिजीत वी बनर्जी न हों। ऐसा आंध्र प्रदेश के छोटे से शहर गुंटूर के एक गरीब इलाके में हुआ था। असल में, सुबह के करीब नौ बजे मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) का यह 49 वर्षीय प्रोफेसर नाश्ते के लिए डोसा खरीदने गया था। सड़क पर ताजा...

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मुस्लिम औरतों को धर्म के पिंजरे में सुरक्षित रहने की गारंटी कौन दे रहा है?-- फैयाज अहमद वजीह

औरत और आज़ादी, हमारे समाज में इन दो शब्दों का एक साथ उच्चारण गंदी, बेहूदा और बे-लगाम औरतों की कल्पना करने जैसा है. औरत का पढ़ा-लिखा, समझदार होना या विवेक-बुद्धि से काम लेने की उनकी योग्यता को मानना-पसंद करना तो अलग, उसे अक्सर गवारा करना भी गले में अटकी हुई हड्डी को निगलना है. बात वही सदियों पुरानी है कि बिस्तर की ज़ीनत हुक्म की बांदी ही भली... बराबरी और अधिकारों...

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