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निजीकरण नहीं वनों का हो कायाकल्प-- रामचंद्र गुहा

पैंतालीस साल पहले अलकनंदा घाटी के ग्रामीणों ने जब जंगल से पेड़ काटकर ले जाने वालों को रोका, तो किसी ने सोचा न होगा कि यहीं से चिपको आंदोलन की नींव पड़ने जा रही है। एक ऐसा किसान आंदोलन, जिसने भारत में वनों के व्यावसायिक दोहन पर सबका ध्यान खींचा। चिपको आंदोलन का ही यह असर था कि वनाधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ी। गढ़चिरौली, बस्तर, सिंहभूम और पश्चिमी घाट सहित...

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स्वायत्तता ही अकेला विकल्प-- हरिवंश चतुर्वेदी

हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने ट्विटर के माध्यम से यह घोषणा की कि पांच केंद्रीय विश्वविद्यालयों, 21 राज्य विश्वविद्यालयों, 26 निजी विश्वविद्यालयों और 10 कॉलेजों को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने स्वायत्तता दे दी है। इन 62 संस्थानों को यह स्वायत्तता शैक्षणिक गुणवत्ता के आधार पर दी गई, जिसके लिए उनको नैक, बेंगलुरु द्वारा मिले स्कोर को पैमाना बनाया गया है। अब ये संस्थान अपना...

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पत्थलगड़ी : यूसुफ पूर्ति ने कहा- वर्जित क्षेत्र में घुस कर सीएम व प्रशासन कर रहे तानाशाही

खूंटी : खूंटी के भंडरा में पत्थलगड़ी के एक वर्ष पूरे होने पर शुक्रवार को स्थानीय बाजारटांड़ में सभा का आयोजन किया गया. इसमें वक्ताओं ने ग्राम सभा को सशक्त करने, पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में रुढ़िवादी परंपरा से शासन व्यवस्था संभालने की बात कही. आदिवासियों से एकजुट होने की अपील की. सभा के दौरान वीर बिरसा मुंडा के जयकारे लगाये गये. सभा स्थल के चारों तरफ तीर-धनुष से लैस...

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मिड डे मील पर रोजाना मात्र 6 से 9 रुपए प्रति छात्र खर्च करती है सरकार

मध्याह्न भोजन योजना के माध्यम से 10 करोड़ छात्रों को जोड़ने और कक्षा में छात्रों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के तमाम दावों के बीच ऐसे सवाल उठ रहे हैं कि क्या प्रति छात्र प्रतिदिन 6 से 9 रुपए के हिसाब से छात्रों को पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराया जा सकता है? मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक अधिकारी ने ‘भाषा' को बताया कि मध्याह्न भोजन योजना के तहत प्राथमिक कक्षा स्तर...

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गरीबी नहीं गैरबराबरी है चुनौती-- मृणाल पांडे

एक जमाना था, जब कक्षा से चुनावी भाषणों तक में ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है?' जैसे जुमले सुनने को मिलते थे. भला हो राग दरबारी के लेखक श्रीलाल शुक्ल का, जिन्होंने इस उपन्यास के मार्फत आजादी के बाद हमारे बदहाल गांवों की असलियत दिखाकर इस पाखंड पर ऐसी चोट की कि पढ़ने-लिखनेवाले लोग इस भावुक और निरर्थक मुहावरे से बचने लगे. फिर ‘90 के दशक में आर्थिक उदारीकरण...

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