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भ्रष्टाचार क्या परिवार की देन है- शीतला सिंह

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी इन दिनों देश के विभिन्न भागों का दौरा करके अपने ज्ञान, गुण, विद्वता और गौरव का बखान कर रहे हैं। पिछले दिनों एक सभा में उन्होंने कहा, मैं तो अकेला हूं, फिर किसके लिए भ्रष्टाचार करूंगा? जैसे भ्रष्टाचार कोई परिवार का गुण हो। एक समय राजनीति में किन्नरों का प्रवेश भी इसी तर्क के साथ हुआ था कि उनका कोई परिवार नहीं होता,...

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गुजरात मॉडल की असलियत- कृष्ण स्वरुप आनंदी

जनसत्ता 19 फरवरी, 2014 : गुजरात का विकास चर्चा का विषय बना दिया गया है। ऐसा दावा किया जा रहा है कि अन्य राज्यों के लिए ही नहीं, बल्कि समूचे देश के लिए भी एक बेहतरीन अनुकरणीय मॉडल गुजरात ने प्रस्तुत किया है। उस मॉडल को देशव्यापी बनाने का सपना जोर-शोर से लोगों को दिखाया जा रहा है। विकास, सुशासन, समृद्धि, रोजगार सृजन जैसे शब्द तेजी से हवा में उछाले...

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घरेलू नौकरों के जीवन और जीविका की दशा पर परिचर्चा

इन्क्लूसिव मीडिया फॉर चेंज, सीएसडीएस, द्वारा आयोजित परिचर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं   विषय- Work like any other? Accounting for domestic work in India वक्ता: भारती बिरला, राष्ट्रीय परियोजना समायोजनक, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन(ILO)   नीता पिल्लई, प्रोफेसर, सेंटर फॉर विमेन्स डेवलपमेंट स्टडीज          अमरजीत कौर, राष्ट्रीय सचिव, ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस   मैक्सिमा एक्का,डोमेस्टिक वर्कर्स फोरम ब्रदर वर्गीज थेकनाथ- समायोजक, डोमेस्टिक वर्कर्स फोरम ऑव इंडिया   तारीख: 19 फरवरी ∣ स्थान: प्रेस क्लब ऑव इंडिया ∣ समय:...

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मानवीय आपदा में मानवाधिकार- सुभाष गाताडे

मानवीय आपदा के वक्त मानवाधिकार का मसला अक्सर ऐसे समय में ही सुर्खियां बनता है, जब किसी क्षेत्र विशेष को बाढ़, भूकंप, सुनामी या अन्य किसी आपदा का सामना करना पड़ रहा होता है। और उस समय की चुनौतियां अलग किस्म की होती हैं, लिहाजा न उस पर बात हो पाती है और न ही अमल हो पाता है। यूरोपीय संघ द्वारा प्रायोजित तथा हाल में प्रकाशित अध्ययन ‘इक्वालिटी इन एड: एड्रेसिंग...

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कटते जंगल किसका मंगल- मुस्कान

जनसत्ता 8 फरवरी, 2014 : विकास के पूंजीवादी-नवउदारवादी मॉडल की कुछ खास तरह की जरूरतें होती हैं। या कहें कि यह मॉडल आर्थिक संवृद्धि के एवज में कुछ खास बलिदानों की मांग करता है। हम देखते हैं कि भारत सरीखे अधिकतर विकासशील देश इन बलिदानों के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। अब सवाल है कि विकास की प्रचलित अवधारणा किन बलिदानों की मांग करती है? और ये बलि के बकरे...

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