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खेतिहर संकट | शोध और विकास

शोध और विकास

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खास बात


तेलहन, मक्का,पाम ऑयल और दालों से संबद्ध तकनीकी मिशन को चलते हुए दो दशक गुजर चुके हैं।दाल, पाम ऑयल और मक्का को साल १९९०-९१,१९९२ और १९९५-९६ में इस सिशन के अंतर्गत लाया गया।मिशन के अंतर्गत १९८६ से तेलहन का उत्पादन विशेष रुप से शुरु हुआ और उसमें बढ़ोत्तरी हुई है फिर भी देश में खाद्य तेल की जितनी मांग है उसकी तुलना में देश में तेलहन का उत्पादन कम हो रहा है।.*


दालों का उत्पादन दशकों से ठहराव का शिकार है।इससे संकेत मिलते हैं कि दालों के उत्पादन वृद्धि का मिशन कारगर सिद्ध नहीं हो रहा।..*


नेशनल प्रोजेक्ट ऑन कैटल एंड बफलो ब्रीडिंग नाम की परियोजना पशुपालन,डेयरी और मत्स्य पालन विभाग का फ्लैगशिप प्रोग्राम है।इसकी शुरुआत साल २००० में दस सालों के लिए की गई थी।इसके अंतर्गत दुधारु पशुओं के प्रजाति सुधार और उनकी देसी प्रजातियों के संरक्षण को लक्ष्य बनाया गया था।यह परियोजना २६ राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश में शुरु की गई लेकिन परियोजना शुरुआत से ही खामियों का शिकार रही।.*


डिपार्टमेंट ऑव एग्रीकल्चरल रिसर्च एंड एजुकेशन का नेटवर्क बहुत बड़ा है।इसमें केंद्रीय संस्थानों की संख्या ४८ है, ५ नेशनल ब्यूरो, ३२ राष्ट्रीय शोध केंद्र और ६२ अखिल भारतीय समेकित शोध परियोजनाएं हैं। लेकिन इसकी कार्यदशा के बिगड़े होने के संकेत हो बातों से मिलते हैं। एक-प्रयोगशाला में जितनी उत्पादकता हासिल कर ली जाती है खेतों में आजमाने पर वही उत्पादकता एकदम नीचे चली आती है। दो,नई प्रजाति के जो बीजों की तैयारी में यह नेटवर्क प्रौद्योगिक पिछड़ेपन का शिकार है। *.

 

द इंडियन काऊंसिल ऑव एग्रीकल्चरल रिसर्च ने २६१ कृषि विज्ञानकेंद्र की स्थापना की है। इनकी जिम्मेदारी किसानों को खेती के आधुनिक तौर तरीकों के बारे में किसानों को प्रशिक्षण देना और उन्हें नई प्रौद्योगिकी से परिचित कराना है। **.

 

साल २००० में खेती में शोध और विकास के मद में सरकार ने ५७८ मिलियन डॉलर का निवेश किया।**.


साल १९९५-९६ में केंद्रीय सरकार ने खेती और ग्रामीण विकास पर कुल का ३० फीसदी धन व्यय किया जिसमें अधिकांस राशि उर्वरक और बाकी सब्सिडी के मद में दी गई जो अनुत्पादक मानी जाती है।***

* योजना आयोग द्वारा प्रस्तुत ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज का तीसरे खंड-http://www.esocialsciences.com/data/articles/Document11882008110.2548944.pdf:

**.फिलिप जी पार्डे, जूलियन एम एस्टन और रोली आर पिगाँट द्वारा संपादित एग्रीकल्चरल आर एंड डी इन द डेवलपिंग वर्ल्ड- टू लिटिल टू लेट?http://www.ifpri.org/pubs/books/oc51/oc51ch07.pdf

 

*** लिंकेज विट्वीन गवर्नमेंट स्पेंडिग, ग्रोथ, एंड पावर्टी इन रुरल इंडिया(१९९९)-फैन, हेजेल,थोरट-इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्चLinkages between http://www.ifpri.org/pubs/abstract/110/rr110.pdf


एक नजर

खेती-बाड़ी से जुड़े शोध और विकास पर खर्च किया गया एक रुपया तेरह रुपये से कुछ ज्यादा बनकर लौटता है। शेयर बाजार में चढ़ती के दिन हों तब भी उसमें लगाये गयी रकम पर इतनी कमाई नहीं होती। फिर इससे जुड़ी एक बात और भी है कि कृशिगत शोध और विकास पर लगाया गया एक-एक रुपया सीधे गरीबी पर असर डालता है। अर्थशास्त्री फैन,हैजेल और थोरट द्वारा प्रस्तुत एक आलेख के अनुसार कृषिगत शोध और विकास पर खर्च किए गए हर 10 लाख रुपये से 85 लोग गरीबी के मकड़जाल से बाहर निकल जाते हैं।यह बात दिन के उजाले की तरह जगजाहिर है कि शोध और विकास की देश की प्रगति में बड़ी भूमिका है और यह आज के बोझ को कल की संपदा में तबदील कर डालता है।कृषिगत शोध और विकास के दायरे में उन्नत बीजों को विकसित करने ,जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने,प्रयोग में आसान और फायदेमंद तकनीक गढ़ने से लेकर खेती के कारगर तौर तरीके इजाद करने तक काम शामिल है।

कृषिगत शोध और विकास की बड़ी तस्वीर कहती है कि भारत में सन् साठ के दशक से इसमें बड़ी बढ़ोत्तरी हुई है लेकिन अब भी खेतिहर शोध और विकास को किसान की जरुरतों से जोड़ा जाना बाकी है।वैज्ञानिक ज्यादातर विशिष्ट प्रकृति की परियोजनाओं पर काम करते हैं और बहुधा इन परियोजनाओं को कोई मेल सरकार की तरफ से ग्रामीण आबादी की जीविका की दशा सुधारने के लिए शुरु की गई नीतियों या फिर देश की बड़ी चुनौतियों मसलन भुखमरी और गरीबी से नहीं बैठता। कृषिगत शोध और विकास को जलवायु परिवर्तन,पोषणगत सुरक्षा की गिरती दशा, भू-क्षरण, नये कीट और फसल की बीमारियां तथा किसानों के कमते फायदे जैसी नई चुनौतियों से भी निबटना होगा।

 

भारत में कृषिगत शोध का नेटवर्क दुनिया के सर्वाधिक विस्तरित नेटवर्कों में से एक है लेकिन भारत में शोध और विकास पर जीडीपी का 0.31 फीसदी ही खर्च होता है जबकि विकसित देश अपनी जीडीपी का 2 से 4 फीसदी शोध और विकास के मद में खर्च करते हैं। बहुत दिनों से भारत के विख्यात शोध-संस्थान धन और उच्च योग्यता के मानव-संसाधन की तंगी का सामना कर रहे हैं।साल 2005-06 में डिपार्टमेंट ऑव एग्रीकल्चरल रिसर्च एंड एजुकेशन(डेयर) से खबर आयी कि वहां 2000 की तादाद में वैज्ञानिकों की कमी है और इस संस्तान में इतनी ही संख्या में तकनीकी और प्रशासनिक काम करने वाले सदस्यों और कर्मचारियों की जरुरत है।पिछले दो दशकों में भारत में खेतिहर शोध और विकास के नाम पर नाम मात्र को की ठोस काम हुआ है। इस बात के लिए आलोचना हुई है कि खेतिहर शोध और विकास में छोटे किसानों की जरुरतों को ध्यान में रखकर प्राथमिकताएं तय नहीं की जा रही हैं और प्रयोगशाला में उत्पादकता बढ़ाने के नाम पर चाहे जो कारनामे किए जा रहे हों, खेतों में जाकर वही कारनामे फिसड्डी साबित हो रहे हैं।जाहिर है खेतिहर शोध और विकास की नीति पर पुनर्विचार के लिए हमारे पास अब एक से बढ़कर एक कारण मौजूद हैं।



Rural Expert


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