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खेतिहर संकट | शोध और विकास

शोध और विकास

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योजना आयोग द्वारा प्रस्तुत ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज के तीसरे खंड के अनुसार-

http://www.esocialsciences.com/data/articles/Document11882
008110.2548944.pdf
:

 

कृषि से जुड़े शोध की मुख्य चुनौतियां हैं-

 

· तेलहन, मक्का,पाम ऑयल और दालों से संबद्ध तकनीकी मिशन को चलते हुए दो दशक गुजर चुके हैं।दाल, पाम ऑयल और मक्का को साल १९९०-९१,१९९२ और १९९५-९६ में इस सिशन के अंतर्गत लाया गया।मिशन के अंतर्गत १९८६ से तेलहन का उत्पादन विशेष रुप से शुरु हुआ और उसमें बढ़ोत्तरी हुई है फिर भी देश में खाद्य तेल की जितनी मांग है उसकी तुलना में देश में तेलहन का उत्पादन कम हो रहा है।

 

· दालों का उत्पादन दशकों से ठहराव का शिकार है।इससे संकेत मिलते हैं कि दालों के उत्पादन वृद्धि का मिशन कारगर सिद्ध नहीं हो रहा।

 

· नेशनल प्रोजेक्ट ऑन कैटल एंड बफलो ब्रीडिंग नाम की परियोजना पशुपालन,डेयरी और मत्स्य पालन विभाग का फ्लैगशिप प्रोग्राम है।इसकी शुरुआत साल २००० में दस सालों के लिए की गई थी।इसके अंतर्गत दुधारु पशुओं के प्रजाति सुधार और उनकी देसी प्रजातियों के संरक्षण को लक्ष्य बनाया गया था।एक उद्देश्य इसके लिए नीतिगत उपाय कपने का भी था।यह परियोजना २६ राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश में शुरु की गई लेकिन परियोजना शुरुआत से ही खामियों का शिकार रही।चाहे चारे की कमी हो या फिर संकरण के लिए नर पशु की मौजूदगी का मामला- सारा कुछ इस परियोजना में अव्यवस्था का शिकार हुआ।

 

 

कृषि से जुड़े शोधों की असफलताएं:

 

· परंपरागत और आधुनिक जीवविज्ञान के तरीके को मिलाकर ऊपज और उसकी गुणवत्ता दोनों को एक साथ सुधारने की जरुरत है।.

 

· मटर,सोयाबीन और सरसों के उत्पादन के मामले में संकर बीजों को शोध के जरिए इस भांति तैयार किया जाना चाहिए कि वे व्यावसायिक रुप से लाभदायक सिद्ध हों।

 

· फ़सलों की कुछ देसी प्रजातियां ऐसी हैं जिनके जीन उन्हें पोषक तत्वों के लिहाज से काफी फायदेमंद बनाते हैं।ऐसी प्रजातियों की पहचान होनी चाहिए और वर्षा पर आधारित खेती वाले इलाके में इनके उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

 

· खेती पर पर्यावरण के बदलाव का क्या असर हो रहा है और नये ढंग की खेती किस तरह पर्यावरण को प्रभावित कर रही है-इसका अध्ययन होना चाहिए और ग्लोबल वार्मिग के मसले पर एक शोध-कार्यक्रम की शुरूआत होनी चाहिए।

 

· किसी खेतिहर इलाके में मिट्टी के लिए किस किस्म के पोषक तत्वों की जरुरत है और वहां सिंचाई के लिए पानी का कैसा प्रबंधन कारगर होगा-इस मसले पर एक व्यापक शोध कार्यक्रम चलाये जाने की जरुरत है।

 

· इंटीग्रेटेड पेस्ट मैनेजमेंट यानी कीटों से फ़सलों को बचाने के लिए समेकित प्रबंधन पर विशेष जोर देने की जरुरत है।फिलहाल इस सिलसिले में जो शोध कार्य जल रहे हैं उनमें फ़सलों की रक्षा से जुड़े विभिन्न विज्ञानों के बीच पूरा तालमेल नहीं है।इससे एक ही निष्कर्ष अलग अलग फ़सलों के मामले में दोहराने की घटनाएं सामने आती हैं और कुछ ऐसे सुझाव भी दिए जाते हैं जिनपर अमल करना मुमकिन नहीं है। फ़सलों को कीट से बचाने के लिए कई अनुशासनों को एक साथ मिलाकर शोध किया जाना चाहिए।


· बागवानी से जुड़े शोध में देसी जैव विविधता पर जोर दिया जाना चाहिए ताकि यह पता तल सके कि कौन सी प्रजाति उत्पादकता और गुणवत्ता के लिहाज से सबसे बढ़िया और कारगर है।

 

· पशुपालन से जुड़े शोध में देसी प्रजातियों में मौदूद आनुवांशिक संभावनाओं की पहचान करना जरूरी है।भारतीय प्रजातियों में उत्पादकता के लिहाज से कौन से जीनगत गुण मोजूद हैं-इसके बारे में शोध का होना बहुत जरूरी है।

 

· पशुओं के चारे की कमी लगातार महसूस की जा रही है।पशुधन को प्रयाप्त मात्रा में पोषक चारा उपलब्ध करानेकी दृष्टि से शोध कार्य होने चाहिए।

 

· हाल के सालों में बड़े पैमाने पर पशु-उत्पादों का उत्पादन हो रहा है।पशु उत्पादों को तैयार करने की प्रक्रिया में कौन सी तकनीक कारगर होगी,पशु-उत्पाद की गुणवत्ता कैसे बढ़ायी जाय,उनका भंडारण,पैकेजिंग,परिवहन और मार्केंटिंग कैसे हो-जैसे सवालों को केंद्र में ऱखकर शोध कार्य करना ज़रुरी हो गया है। कई बार रोगों के फैलने से पशुधन का बड़े पैमाने पर नुकसान होता है।शोध में कारगर टीके के विकास और रोग के रोकथाम पर जोर दिया जाना चाहिए।इस बात पर पर्याप्त नजर होनी चाहिए कि मानव स्वास्थ्य का गहरा ताल्लुक पशुओं के स्वास्थ्य से है और इस दृष्टि से पशुओं की स्वास्थ्य रक्षा के लिए शोध कार्यों पर पर्याप्त महत्व दिया जाना ज़रुरी है।

 

· यह बात ठीक है कि खेती से जुड़े शोध कार्य के लिए जरुरत के मुताबिक धन नहीं मुहैया कराया जाता लेकिन सवाल सिर्फ संसाधनों की कमी ही का नहीं है।जो संसाधन मौजूद हैं उनका पूरा इस्तेमाल नहीं हो पाता क्योंकि उनके इस्तेमाल के लिए जो रणनीति तैयार की जाती है वह स्पष्ट नहीं होती।रणनीति में जिम्मेदारियों का साफ साफ जिक्र नहीं होता और ना ही प्राथमिकताएं तय होती है।रणनीतिकारों को यह बात भी ध्यान रखनी होगी कि किसी मसले पर हुआ सफल शोध कार्य ज़रुरी नहीं कि उत्पाद के विकास की जरुरतों के माफिक बैठे।

 

· फिलहाल शोध-कार्यों में उत्पाद की अंतिम अवस्था को महत्व देने का चलन है यानी सारा जोर उत्पाद के उस रूप पर है जो बाजार में ग्राहक के हाथों बिकने के लिए मौजूद होता है।इससे शोध-कार्य में किसी उत्पाद से जुड़े विभिन्न खेतिहर प्रयासों को विशेष महत्व नहीं मिलता।.

 

· शोध और विकास से जुड़ी एजेंसियों में आपसी लेन-देन भी नहीं होता।दो एजेंसियों के बीच सूचनाओं के लेन-देन की बात तो छोड़ दें,एक ही एजेंसी के बीतर अलग-अलग विभागों के बीच तालमेल का अभाव होता है।संबव है कि किसी संस्था का शोध वाला विभाग अपने शोध कार्य को पूरा कर चुका हो लेकिन उसके क्रियान्वयन से जुड़ा विभाग हाथ पर हाथ धरकर बैठा हो।

 

· शोध के आधार पर जो निष्कर्ष या उत्पाद हासिल होते हैं उनकी व्यावहारिकता की जांच खेतों में होनी चाहिए या फिर उन जगहों पर जहां अमल में लाने के लिए शोध कार्य हुआ है। इससे जाहिर होगा कि शोधकार्य सचमुच प्रयोगशाला से बाहर कारगर सिद्ध हो रहा है या नहीं और अगर नहीं हो रहा है तो उसमें किस किस्म के सुधार किये जायें। दुर्भाग्य से अपने देश में ऐसा बहुत कम होता है।



Rural Expert


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