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खेतिहर संकट | शोध और विकास

शोध और विकास

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फिलिप जी पार्डे, जूलियन एम एस्टन और रोली आर पिगाँट द्वारा संपादित एग्रीकल्चरल आर एंड डी इन द डेवलपिंग वर्ल्ड- टू लिटिल टू लेट? के अनुसार

http://www.ifpri.org/pubs/books/oc51/oc51ch07.pdf

 

· भारत में खेती के विकास के लिए शोध और शिक्षा का व्यवस्थित प्रयास उन्नीसवीं सदी के आखिर के पच्चीस सालों में हुआ।इस वक्त अंग्रेजी शासन के अन्तर्गत आने वाले प्रान्तों में डिपार्टमेंट ऑव रेवेन्यू एग्रीकल्चर एंड कॉमर्स की स्थापना हुई और साथ ही साथ एक वैक्टीरियोलॉजिकल लैबोरेट्री और पाँच वेटेरीनरी कॉलेज खोले गए।

 

· साल 1905 के आसपास इम्पीरियल एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट कायम हुआ जिसे आज इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट कहा जाता है।इसी वक्त छह कृषि-महाविद्यालय (एग्रीकल्चरल कॉलेज) भी खुले।

 

· खेती से जुड़े शोध और शिक्षा की दिशा में इम्पीरियल काउंसिल ऑव एग्रीकल्चरल रिसर्च (इसे अब इंडियन काउंसिल ऑव एग्रीकल्चरल रिसर्च कहा जाता है।) की स्थापना को(साल 1929) मील का स्तम्भ माना जाता है। यह एक अर्ध-स्वायत्त संस्था है और इसकी स्थापना राष्ट्रीय स्तर पर खेती से जुड़े शोध को बढ़ावा देने,दिशा-निर्देश देने तथा तमाम शोध गतिविधियों के बीच तारतम्य बैठाने के लिए की गई है।

 

· साल 1921 से लेकर 1958 के बीच नकदी फ़सलों के विकास के लिए केंद्रीय स्तर पर कई समितियां कायम की गईं।इन समितियों में कपास, लाख, जूट, गन्ना, नारियल, तंबाकू. तेलहन, मसाले और काजू आदि के विकास के लिए बनायी गई समितियों का नाम लिया जा सकता है। ये समितियां भी अपने स्वभाव में अर्ध-स्वायत्त बनायी गई हैं।समितियों को सरकारी अनुदान मिलता है साथ ही समितियों से जुड़े उत्पाद के ऊपर लगे कर से हासिल होने वाले राजस्व से भी इन्हें अपना हिस्सा हासिल होता है। समितियां नकदी फसलों के लिए शोधकेंद्र की स्थापना करती हैं।


· आजादी हासिल होने के बाद के सालों में एक नई सांस्थानिक पहल ऑल इंडिया कोऑर्डिनेटेड रिसर्च प्रोजेक्टस् (AICRPs) के रुप में हुई।इसे इंडियन काऊंसिल ऑव एग्रीकल्चरल रिसर्च(ICAR) के अन्तर्गत साल 1957 में चलाया गया।इसे चलाने के पीछे उद्देश्य कई संस्थानों में एक साथ चलने वाले शोध और कई विषयों को एक साथ मिलाकर होने वाले शोध यानी बहुसांस्थानिक और बहुआनुशासनिक शोधों को बढ़ावा देना था।


· साल 1965 में ICAR की जिमेदारियां बदलीं।सरकारी स्तर पर फैसला आया कि नकदी फसलों के विकास से जुड़ी समितियों और शेष सरकारी विभागों ने जो शोधकेंद्र बनाये हैं उनकी निगरानी,दिशा-निर्देश और इनके बीच में तालमेल बैठाने के साथ साथ शोधों को बढ़ावा देने का काम अब से ICAR के हाथ में होगा।

 

· इसके तुरंत बाद डिपार्टमेंट ऑव एग्रीकल्चरल रिसर्च एंड एजुकेशन (DARE) की स्थापना केंद्रीय कृषि मंत्रालय में हुई ताकि आईसीएआर और केंद्र तथा राज्य सरकारों और विदेश की शोध संस्थाओं के बीच संबंध सूत्र बहाल किये जा सकें।

 

· भारत और अमेरिका के दो संयुक्त दलों ने अपने निरीक्षण के आधार पर साल 1955 और 1960 में कुछ सुझाव दिए। इन सुझावों के आझार पर राज्य स्तर स्टेट एग्रीकल्चरल युनिवर्सिटीज(SAUs) यानी प्रांतीय कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। इसमें अमेरिका में अमल में लाये गए भूमि-अनुदान की पद्धति अपनायी गई। राज्य स्तर पर पहला कृषि विश्वविद्यालय उत्तरप्रदेश के पंतनगर में साल 1960 में खुला।प्रांतीय स्तर के कृषि विश्वविद्यालय स्वायत्त होते हैं और इनको खर्चे की रकम संबद्ध प्रांत की सरकार देती है।

 

· कई अंतर्राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं ने भारत में खेती से जुड़े शोध और शिक्षा को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इनमें रॉकफेलर फाऊंडेशन और यूनाइटेड स्टेटस् एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट का नाम विशेष रुप से लिया जा सकता है। इन संस्थाओं ने प्रांतीय स्तर पर स्थापित किये जाने वाले विश्वविद्यालयों की स्थापना तथा अमेरिका में भूमि-अनुदान के आधार पर बने विश्वविद्यालयों के सहयोग से कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। विश्वबैंक ने भी साल 1980 के बाद से कृषि के क्षेत्र में शोध को प्रर्याप्त संसाधन मुहैया कराये हैं।

 

· फिलहाल देश में सरकारी क्षेत्र के अन्तर्गत कृषि से जुड़े शोध और शिक्षा के दायरे में आईसीएआर और उसके साथी संस्थान तथा प्रांतीय स्तर के कृषि विश्वविद्यालय और क्षेत्रीय शोध संस्थाएं आती हैं।केंद्रीय स्तर पर आईसीएआर अपनी साथी संस्थाओं को धन प्रदान करता है और उनके विशाल नेटवर्क के देखभाल की जिम्मेदारी उठाता है।इसमें बुनियादी और रणनीतिक महत्त्व के शोध से जुड़े राष्ट्रीय स्तर की शोध संस्थाएं,फसल विशेष पर केंद्रित राष्ट्रीय स्तर की शोध संस्थाएं,भूमि के सर्वेक्षण और जर्मप्लाज्म की अदला-बदली तथा संरक्षण से जुड़े राष्ट्रीय ब्यूरो को धन देना और उनसे सम्पर्क में रहना शामिल है।


· साल 2000 में आईसीएआर के अन्तर्गत 5 राष्ट्रीय स्तर के संस्थान, 42 केंद्रीय शोध संस्थान, 4 राष्ट्रीय ब्यूरो, 10 परियोजना निदेशालय,28 नेशनल रिसर्च सेंटर और 82 ऑल इंडिया कोऑर्डिनेटेड रिसर्च प्रोजेक्टस् (AICRPs) काम कर रहे थे।


· इसके अतिरिक्त आईसीएआर ने जिला स्तर पर 261 कृषि विज्ञान केंद्र स्थापित किये हैं।इन केंद्रों की जिम्मेदारी जिला स्तर पर किसानों को नई प्रौद्योगिकी प्रदान करना और उन्हें प्रशिक्षित करना है। कृषि विज्ञान केंद्रों में से कुछ की देखरेख प्रांतीय स्तर के कृषि विश्वविद्यालयो और स्वयंसेवी संस्थाओं के हवाले है। इसके अलावे आईसीएआर ने पशुधन,बागवानी,मछली पालन और गृहविज्ञान से जुड़े शिक्षकों को प्रशिक्षण देने के लिए आठ संस्थान खोल रखे हैं।


· पिछले एक दशक या इससे थोड़े ज्यादा वक्त से जैवप्रौद्योगिकी(बॉयोटेक्नॉलॉजी) में क्रांतिकारी प्रगति हुई है और इससे खेती से जुड़े शोध की दिशा में बदलाव आया है।इस बदलाव को देखते हुए साल 1986 में विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन डिपार्टमेंट ऑव बॉयोटेक्नॉलॉजी कायम किया गया ताकि खेती, स्वास्थ्य-रक्षा,पर्यावरण और उद्योग से संबंधित बॉयोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में बुनियादी ढांचे और मानव संसाधन के विकास में योग दिया जा सके।


· सरकारी क्षेत्र के अलावे निजी क्षेत्र बी बॉयोटेक्नॉलॉजी के इलाके में आ रहे बदलाव को लेकर सक्रिय है।फिलहाल खेती से जुड़े बॉयोटेक्नॉलॉजी के शोध में 45 कंपनियों सक्रिय हैं। साल 1997 में इनका बाजार 7 करोड़ 50 लाख अमेरिकी डॉलर का था।

 

शोध के लिए धन की व्यवस्था


· खेती से जुड़े शोध और शिक्षा के सरकारी अनुदान आईसीएआर और प्रांतीय स्तर के कृषि विश्वविद्यालयों को हासिल होता है।धन का आबंटन पंचवर्षीय योजनाओं के आधार पर किया जाता है।


· खेती को राज्य सूचि में ऱखा गया है यानी खेती का जिम्मा राज्यों का है। बहरहाल, केंद्र सरकार ने साल 2000 में आईएसीआर के जरिए इसके लिए 30 करोड़ अमेरिकी डॉलर का एकमुश्त अनुदान मुहैया कराया।आईएसीआर अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों अथवा किसी अन्य देश से द्विपक्षीय संबंध के आधार पर अनुसंधान के लिए मिलने वाली रकम (अनुदान अथवा कर्ज के रुप में ) का भी प्रबंधन संभालता है।


· खेती से जुड़े अनुसंधान के लिए प्राप्त होने वाली रकम का एक बड़ा स्रोत विश्वबैंक है। साल 1998-2003 के दौरान विश्वबैंक से एनएटीपी के तहत आईसीएआर को 18 करोड़ अमेरिकी डॉलर का कर्जा अनुसंधान के मद में मिला। साल 1995-2001 के बीच विश्वबैंक ने चार राज्यों के कृषि विश्वविद्यालयों को मानव संसाधन के विकास के लिए एक करोड़ अमेरिकी डॉलर कर्जा दिया।


· कुल मिलाकर देखें तो केंद्र की सरकार खेती से जुड़े अनुसंधान और शिक्षा के लिए 52 फीसदी धन मुहैया कराती है और यह सारा धन आईएसीआर के जरिए दिया जाता है। आईसीएआर को हासिल धन का लगभग 30 फीसदी हिस्सा विश्वविद्यालय से इतर संस्थाओं को वित्त प्रदान करने के लिए दिया जाता है जबकि इस धन का लगभग 87 फीसदी प्रांतों के कृषि-विश्वविद्यालयों के हाथ में जाता है।


· प्रान्तों की सरकार ने साल 2000 में कृषि विश्वविद्यालयों को 27 करोड़ 70 लाख अमेरिकी डॉलर दिए और लगभग सारी राशि का इस्तेमाल प्रान्तों के कृषि विश्वविद्यालयो ने विश्वविद्यालयी कामों के लिए किया। आईसीएआर से जुड़े संस्थान राज्य-प्रदत्त राशि का इस्तेमाल नहीं करते।उसका एक अपवाद उत्तरप्रदेश द्वारा मुहैया कराया गया फंड है जिसका इस्तेमाल खेती से जुड़े अनुसंधान कार्य में लगी प्रदेश की कोई संस्था कर सकती है और इसमें आईसीएआर से जुड़े संस्थान शामिल हैं।


शोधकार्य और सरकारी धन-एक नजर रुझानों पर


· कृषि से जुड़े शोधकार्य के लिए १९६१ में २८ करोड़ ४० लाख अमेरिकी डॉलर मुहैया कराये गए थे और बीस सालों के अंदर शोधकार्य के लिए मुहैया कराये गए धन में बढ़ोत्तरी का रुझान रहा।१९८१ में ८७ करोड़ ५० लाख अमेरिकी डॉलर सरकार ने शोधकार्य के लिए दिए।(यहां राशि की गणना १९९९ की पर्चेजिंग पावर पैरिटी के आधार पर की गई है।)


· साल २००० में खेती से जुड़े अनसंधान कार्य के लिए सरकार ने २ अरब ८९ लाख ३० हजार अमेरिकी डॉलर दिए यानी पिछले चालीस सालों में इस मद में दी गई राशि में चार गुनी बढ़ोतरी हुई।


· चालू विनिमय दर के हिसाब से देखें तो खेती से जुड़े अनुंसंधान कार्य के लिए सरकार ने साल २००० में ५७ करोड़ ८० लाख का निवेश किया।केंद्र और राज्य सरकार दोनों द्वारा इस मद में दी जाने वाली राशि में बढोत्तरी हुई है।राज्यों द्वारा दी जाने वाली राशि में साल १९६० के दशक में बढ़ोत्तरी हुई।इस दशक में राज्यों में कृषि विश्वविद्यालय खुले।


· १९६० के दशक के बाद केंद्र सरकार की तरफ से राज्यों की बनिस्बत ज्यादा राशि दी जाने लगी और १०८० तथा १९९० के दशक में खेती से जुड़े शोध कार्य के लिए मुहैया रकम में केंद्र और राज्य सरकारों का हिस्सा बराबरी का रहा।


· अगर सरल शब्दों में कहें तो खेती से जुड़े शोध कार्य के लिए मुहैया करायी गई रकम का दो तिहाई हिस्सा शिक्षा पर खर्च होता है।


· साल १९७० के दशक में शोध के मद में दी जाने वाली राशि में सवा तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई जबकि साल १९८० के दशक में सात फीसदी की जबकि १९९० के दशक में महज साढ़े चार पीसदी की बढ़ोत्तरी की बढ़ोत्तरी हुई।



Rural Expert


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