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कृषि | किसानी का तीर्थ बनता तिउसा गांव --- बाबा मायाराम
किसानी का तीर्थ बनता तिउसा गांव --- बाबा मायाराम

किसानी का तीर्थ बनता तिउसा गांव --- बाबा मायाराम

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published Published on Jul 10, 2017   modified Modified on Jul 10, 2017
महाराष्ट्र का एक गांव है तिउसा। यवतमाल से सोलह किलोमीटर दूर। यह गांव किसानों के लिए तीर्थ बन गया है। तीर्थ जहां कुछ अच्छाई है, किसान जहां अपना भविष्य देख रहे हैं। यहां बड़ी संख्या में किसान आ रहे हैं। खेती-किसानी की बारीकियां सीख रहे हैं। यहां के प्रयोगधर्मी किसान सुभाष शर्मा कई मायने में अनूठी खेती कर रहे हैं, जिसे वे सजीव खेती कहते हैं।
 
 
हाल ही मैं अपने कुछ मित्रों के साथ उनके फार्म पर गया। तीस अक्टूबर का दिन था। सुबह के ग्यारह बजे थे। हम वर्धा से गाड़ी से यहां पहुंचे थे। खेत में प्रवेश करते ही मुझे टीन शेड दिखा। वहां कुर्सियां बिछी हुई थीं और ब्लेकबोर्ड के साथ स्कैचपेन रखे थे। पूछने पर पता चला यह प्रशिक्षण केन्द्र है, जहां किसानों को सजीव खेती का प्रशिक्षण दिया जाता है।
 
 
यहां किताबें नहीं पढ़ाई जातीं, बल्कि पूरा खेत, फसलें, कीट, पक्षी सभी सीखने का माध्यम हैं। समूची प्रकृति ही गुरू है। गाय, बैल, पशु, पक्षी, पानी सब शिक्षक हैं। सुभाष शर्मा उनके प्रवक्ता हैं। जो नए- नए प्रयोग कर रहे हैं और बदलते मौसम से बचाव के तरीके ईजाद कर रहे हैं। किसानों से साझा कर रहे हैं। इस वर्ष पांच सौ किसान सजीव खेती की इस प्रक्रिया से जुड़ चुके हैं।
 
 
हम भी कुछ समय के लिए प्रशिक्षणार्थी बन गए। सुभाष शर्मा धाराप्रवाह बता रहे थे। हम सुन रहे थे। वे कह रहे थे पहले मैंने रासायनिक खेती की और बाद में सजीव खेती। वर्ष 1994 तक वे रासायनिक खेती करते थे। जिससे जमीन की उर्वरक शक्ति क्षीण हो गई, भूजल स्तर  नीचे चला गया, देसी बीज खत्म हो गए, फसलचक्र बदल गया और मजदूरों का रोजगार खत्म हुआ।
 
 
लेकिन जब उनका इस विनाशक खेती से मोहभंग हुआ और सजीव खेती अपनानी शुरू की तो उनका जीवन बदल गया। वे प्रकृति से जुड़ कर खेती के तौर-तरीके सीखने लगे। धीरे-धीरे भूमि की उर्वरक शक्ति बढ़ती गई, भूजल स्तर ऊपर आया और देसी बीज बचे और मजदूरों को रोजगार भी मिला। 
 
 
सुभाष शर्मा कहते हैं कि खेती विज्ञान हैं, कोई जादू-टोना नहीं हैं। शुरूआत में वे भी इसके विज्ञान व तकनीक के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे। लेकिन धीरे-धीरे अनुभव और सूक्ष्म अवलोकन ने बहुत कुछ सिखा दिया। कम खर्च में ज्यादा उत्पादन पर जोर रहा है। लेकिन उन्होंने तय किया है कि इसके लिए वे बाहरी निवेश इस्तेमाल नहीं करेंगे। यानी न कोई रासायनिक खाद डालेंगे और न ही कीटनाशक। 
 
 
यवतमाल जिले में तिउसा गांव में उनका 17 एकड़ का खेत है। उसमें से केवल 13 एकड़ जमीन में खेती करते हैं। 4 एकड़ जमीन गाय और घर के लिए है। यहां खेती के अलावा, सात मजदूर परिवार रहते हैं, शर्मा जी खुद यवतमाल में रहते हैं, जहां से रोज आते- जाते हैं। खेतों की मेड़ों पर हरे-भरे पेड़ लहलहा रहे हैं। 
 
 
वे बताते हैं कि खेती को समझने के लिए हमें धरती की संरचना को समझना पड़ेगा। धरती पर सृष्टि है।  इसे एक खेल के जरिए समझें जिसे हम बचपन में खेलते थे वह है -लगोरी। इसमें एक के ऊपर एक पत्थर जमाते हैं। इसी प्रकार प्रकृति ने पारस्परिक समन्वय के आधार पर सृष्टि की रचना की है। इसमें मिट्टी, पानी, हवा है।  पौधे, वृक्ष, वनस्पति हैं। पशु, पक्षी और जीव-जंतु भी हैं। 
 
 
इनमें से एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं रहेगा। वे सब एक दूसरे के पूरक हैं। लेकिन रासायनिक खाद ने इसका संतुलन गड़बड़ा दिया है। उसने बेजा रासायनिक खाद के इस्तेमाल से मिट्टी, पानी और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है। इसे ठीक करने की जरूरत है। 
 
 
वे बताते हैं कि सजीव खेती के लिए मिट्टी, पानी, बीज, फसलचक्र और श्रमशास्त्र पर जोर देना होगा। परंपरागत व आधुनिक ज्ञान, योजना और मेहनत करने का जज्बा खेती में बदलाव ला सकता है। 
 
 
मिट्टी की सेहत सुधारना पहला काम है। इसके लिए देसी गाय पालना, पेड़-पौधे लगाना, पेड़ होंगे तो पक्षी भी आएंगे, कीट नियंत्रण भी होगा और इस सबसे मिलेगी जैव खाद। यही हमारे खेत की मिट्टी को उर्वर बनाएगी। इसके साथ मेहनत की जाए तो अच्छे नतीजे आते हैं। 
 
 
वे अपने खेत में जैविक खाद डालते हैं, जिसे बनाने की विधि उन्होंने खुद ईजाद की है। जिसमें वे गोबर खाद, तालाब की मिट्टी, अरहर के छिलके, मूंगफली और गुड़ से मिलाकर बनाते हैं। वे कहते हैं रासायनिक खाद के इस्तेमाल से रोग आते हैं। जबकि जैविक खाद के इस्तेमाल से रोग नहीं आते हैं।  
 
 
इसी प्रकार सूक्ष्म जीवाणुओं के कारण  बारिश का पानी खेत में रूकेगा और भूजल स्तर ऊपर आएगा। अगर हम खेत में मल्चिंग( भूमि ढकाव) करते हैं तो तुअर में फल्लियां ज्यादा लगती हैं। उसकी पत्तियां जैव खाद बनाती हैं। जमीन क्रमशः सुधरती जाती है। मल्चिंग दो प्रकार की होती है। एक तो फसल के ठंडल या भूसा फैला दिया जाता है। इससे नमी का संरक्षण भी होता है और यही बाद में जैव खाद में बदल जाती है। 
 
 
इसके अलावा, हरी खाद लगाते हैं। अरहर, मूंग, उड़द जैसी फसलें लगाते हैं जिन्हें 55- 60 दिन बाद काटकर मल्चिंग (भूमि ढकाव) करते हैं। इस प्रकार, गाय के गोबर से सूक्ष्म जीवाणु, केंचुआ, कीड़े-मकोड़े पैदा हो जाते हैं और जमीन को छिद्रित, पोला और पानीदार बनाते हैं। ये सब मिलकर जमीन को उपजाऊ और ताकतवर बनाते हैं जिससे फसल अच्छी होती  है।
 
 
परिणामस्वरूप,  खेती में मुनाफा  क्रमशः बढ़ रहा है। उनका  20 लाख का सालाना कारोबार है। इसमें शुद्ध मुनाफा 6 लाख से लेकर 9 लाख तक पहुंच गया है। वर्ष 2008-09 में जब सूखा पड़ा था तब  25 प्रतिशत उत्पादन कम हुआ लेकिन फिर भी लाभ ही हुआ। पिछले साल खराब मौसम में उन्हें नुकसान हुआ है। लेकिन वे आश्वस्त हैं,जल्द इसकी क्षतिपूर्ति हो जाएगी।
 
 
वे बताते हैं कि तुअर और चना लेते हैं। और मुख्य रूप से सब्जियां उगाते हैं। प्रति एकड़ 10 क्विंटल से ऊपर आएगा। इसमें उत्पादन मेहनत और लगन पर निर्भर करती है। सतत ध्यान देने की जरूरत होती है।
 
 
 वे देश में शायद विरले किसान होंगे जो अपने मजदूरों को न केवल बोनस देते हैं बल्कि उन्हें हर साल तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते हैं। अब तक वे उन्हें पचमढ़ी, वैष्णव देवी, सोमनाथ आदि की यात्रा  पर ले जा चुके हैं। 
 
 
 जलवायु बदलाव से बचने के लिए पेड़ लगाना जरूरी है। उन्होंने अपने खेत में दो सौ पेड़ लगाए हैं। जिसमें नीम, आम, जामुन, इमली, पीपल, नींबू जैसे कई पेड़ हैं। पेड़ों के फूलों पर मधुमक्खियां आती हैं, वे परागीकरण में मदद करती हैं। हवा भी इस प्रक्रिया में सहायक है। पक्षी आते हैं। वे कीट नियंत्रण करते हैं। पेड़ों से तापमान नियंत्रित होता है, जो इन दिनों बढ़ता ही जा रहा है। जिसके कारण मैथी जैसी कम तापमान में होने वाली फसलें मार खा जाती हैं।
 
 
खेत का पानी खेत में ही रूके, इसका प्रबंधन भी जरूरी है।औद्योगिकीकरण और प्रदूषण के कारण तापमान लगातार बढ़ रहा इसके लिए कम पानी वाली फसलें लगाते हैं। ग्रिड लाकिंग, माइक्रो लाकिंग और कंटूर फार्मिंग से हम पानी को खेत में रोकते हैं। ढालू जमीन वाले खेतों में कंटूर के माध्यम से पानी खेत में रोका है। एक चौड़ी नाली भी खोदी गई है जिससे पानी और मिट्टी रोकने का प्रबंध किया है। इससे हमेशा नमी बनी रहती है और भूजल स्तर बढ़ता है। कुओं में साल भर पानी रहता है। उनके कुएं में साल भर पानी रहता है। 
 
 
 सुभाष शर्मा ने हमें दुपहरी में खेत में घुमाया। अरहर और चने के खेत दिखाए। कद्दू, मैथी और मूली की फसल दिखाई। बड़े और हरे  कद्दू अलग से दिख रहे थे। इन सबके गुणधर्मों के बारे में विस्तार से बताया। हरे अरहर के मोटे पौधे खड़े थे और उनके तने के पास चीटियों का घर था। चीटियां पौधे पर चढ़ रही थी। जो अरहर की इल्लियां खाती हैं। 
 
 
यहां स्वाभाविक कीट नियंत्रण है। कीट और पौधों की बिरादरियों में एक संबंध है। मैं चीटियों को बड़ी देर तक देखता रहा। वे बता रहे थे बीज  और फसल चक्र ऐसे चुनते हैं जो हवा, मिट्टी और पर्यावरण के अनुकूल हों। देसी बीज सबसे उपयुक्त हैं।  
 
 
घूमते-घूमते दोपहर भोजन का समय हो चुका था।  भूख जोर से लग गई थी। स्वादिष्ट भोजन कराया, जो उनके खेत में पैदा हुए अनाज और सब्जियों से बना था। मीठे कद्दू की साग, रोटी, चावल, दाल और सलाद। चावल को छोड़कर बाकी सभी चीजें खेत की थी। गुड़, जो उनके खेत के गन्ने से बना था और छाछ, वह भी घर की गाय से ही बनी। मजा आ गया।  
 
 
सुभाष शर्मा, जापानी कृषि वैज्ञानिक मासानोबू फुकूओका से काफी प्रभावित हैं। फुकुओका अपने खेत की जुताई नहीं करते थे और न ही रासायनिक खादों का इस्तेमाल। उनकी बेस्टसेलर किताब द वन स्ट्रा रिवोल्यूशन ने दुनिया में कई लोगों को प्रभावित किया है। 
 
 
सुभाष शर्मा ने इसमें थोड़ा बदलाव किया है। वे अपने खेतों में बैलों से जुताई करते हैं पर ट्रेक्टर से नहीं। पर वे बाहरी रासायनिक खाद व कीटनाशक का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं करते। जैविक खाद वे खुद तैयार करते हैं। 
 
 
हालांकि इस खेती में श्रम की सतत जरूरत होती। इसके लिए 7 मजदूर परिवार रहते हैं।जबसे खेती में मशीनीकरण हुआ है तबसे खेतों में मेहनत कम हुई है। इसलिए शुरूआत में ज्यादा मेहनत लग सकती है, लेकिन अंत में मेहनत रंग लाएगी। और हमारी खेती सुधरेगी।
 
 
सजीव खेती एक संपूर्ण जीवन पद्धति है। जब हम विनाशक खेती के स्थान पर सजीव खेती करते हैं तो उसके साथ हमारा आहार भी बदल जाता है। समाज और जीवन मूल्य भी बदलेंगे। इस खेती में मानव की भूख मिटाने के साथ समस्त जीव-जगत के पालन का विचार भी निहित है। इससे मिट्टी, पानी, जैव विविधता और पर्यावरण का भी संरक्षण होगा।
 
 
यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हमारी धरती गरम हो रही है। तापमान बढ़ रहा है। मौसम बदल रहा है। और इस सबका किसान की खेती पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इससे बचने के लिए और मौसम को नियंत्रण करने में भी सजीव खेती कारगर साबित हो सकती है।
 
 



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