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सशक्तीकरण | दक्षिण भारत का अप्पिको आंदोलन -- बाबा मायाराम
दक्षिण भारत का अप्पिको आंदोलन -- बाबा मायाराम

दक्षिण भारत का अप्पिको आंदोलन -- बाबा मायाराम

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published Published on Dec 9, 2017   modified Modified on Dec 10, 2017
हिमालय के चिपको आंदोलन की तरह ही दक्षिण भारत में अप्पिको आंदोलन को काफी मान्यता और ख्याति मिली है। इसे न केवल मीडिया में जगह मिली, बल्कि सरकारी महकमें में काफी सराहना मिली। कर्नाटक सरकार ने जंगल में हरे पेड़ों की कटाई पर पूरी तरह रोक लगा दी, जो आज तक जारी है।


हाल ही में मैं 15 सितम्बर को अप्पिको आंदोलन के सूत्रधार पांडुरंग हेगड़े से मिला। सिरसी स्थित अप्पिको आंदोलन के कार्यालय में उनसे मुलाकात और लंबी बातचीत हुई। करीब 34 बीत गए, वे इस मिशन में लगातार सक्रिय हैं। अब वे अलग-अलग तरह से पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने की कोशिश कर रहे हैं।

 


80 के दशक में उभरे अप्पिको आंदोलन में पांडुरंग हेगड़े जी की ही प्रमुख भूमिका रही है। एक जमाने में दिल्ली विश्वविद्यालय से सामाजिक कार्य में गोल्ड मेडलिस्ट रहे हैं। अपनी पढ़ाई के दौरान वे चिपको आंदोलन में शामिल हुए और कई गांवों में घूमे, कार्यकर्ताओं से मिले। चिपको के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा से मिले। यही वह मोड़ था जिसने उनकी जिंदगी की दिशा बदल दी। कुछ समय मध्यप्रदेश के दमोह में लोगों के बीच काम किया और अपने गांव लौट आए। और जीवन में कुछ सार्थक करने की तलाश करने लगे।

 

कुछ साल बाहर रहने के बाद गांव लौटे तो इलाके की तस्वीर बदली-बदली लगी। जंगल कम हो रहे हैं, हरे पेड़ कट रहे हैं। इससे पांडुरंग व्यथित हो गए, उन्हें उनका बचपन याद आ गया। उन्होंने अपने बचपन में इस इलाके में बहुत घना जंगल देखा था। हरे पेड़, शेर, हिरण,जंगली सुअर,जंगली भैंसा, बहुत से पक्षी और तरह-तरह की चिड़ियाएं देखी थीं। पर कुछ सालों के अंतराल में इसमें कमी आई।


इस सबको देखते हुए उन्होंने काली नदी के आसपास पदयात्रा की। उन्होंने देखा कि वहां जंगल की कटाई हो रही हैं। खनन किया जा रहा है। ग्रामीणों के साथ मिलकर कुछ करने का मन बनाया। सबसे पहले सलकानी गांव के करीब डेढ सौ स्त्री-पुरूषों ने जंगल की पदयात्रा की। वहां वनविभाग के आदेश से पेड़ों को कुल्हाड़ी से काटा जा रहा था। लोगों ने उन्हें रोका, पेड़ों से चिपक गए और आखिरकार, वे पेड़ों को बचाने में सफल हुए। यह आंदोलन जल्द ही जंगल की तरह फैल गया। सलकानी के आंदोलन की चर्चा पड़ोसी सिद्दापुर तालुका और प्रदेश में दूसरे स्थानों तक पहुंच गई।


यह अनूठा आंदोलन था, यह चिपको की तरह था। कन्नड भाषा में अप्पिको शब्द चिपको का ही पर्याय है। पांडुरंग जी ने बताया- हमारा उद्देश्य जंगल को बचाना है, जो हमारे जीने के लिए और समस्त जीवों के लिए जरूरी है। हमें सबका सहयोग चाहिए पर किसी का एकाधिकार नहीं। हम सरकार की वन नीति में बदलाव चाहते हैं, जो कृषि में सहायक हों. क्योंकि खेती ही देश के बहुसंख्यकों की जीविका का आधार है।


चिपको आंदोलन हिमालय में 70 के दशक में उभरा था और देश-दुनिया में इसकी काफी चर्चा हुई थी। पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने का यह शायद देश में पहला आंदोलन था। चिपको के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा ने अप्पिको पर बनी फिल्म में चिपको की शुरूआत कैसे हुई, इसकी कहानी सुनाई है।


उन्होंने उस महिला से सवाल किया, जो सबसे पहले पेड़ को बचाने के लिए उससे चिपक गई थी, आप को यह विचार कैसे आया?


महिला ने जवाब दिया- कल्पना करें कि मैं अपने बच्चे के साथ जंगल जा रही हूं और जंगल से भालू और शेर आ जाएं। तब मैं उन्हें देखते ही अपने बच्चे को सीने लगा लूंगी और उसे बचा लूंगी। इसी प्रकार जब पेड़ों को काटने के लिए चिन्हित किया गया तो मैंने सोचा मैं उसे गले से गला लूं, वे मुझे नहीं मारेंगे और पेड़ बच जाएंगे। इस तरह चिपको का विचार सभी जगह फैल गया।


चिपको से प्रभावित अप्पिको आंदोलन भी कर्नाटक के सिरसी से होते हुए दक्षिण भारत में फैलने लगा। इसके लिए कई यात्राएं की गईं, स्लाइड शो और नुक्कड़ नाटक किए गए। सागौन और यूकेलिप्टस के वृक्षारोपण का काफी विरोध किया गया। क्योंकि इससे जैव विविधता का नुकसान होता। यहां न केवल बहुत समृद्ध जैव-विविधता है बल्कि सदानीरा पानी के स्रोत भी हैं।

शुरूआती दौर में आंदोलन को दबाने की कोशिश की, पर यह आंदोलन जनता में बहुत लोकप्रिय हो चुका था और पूरी तरह अहिंसा पर आधारित था। जगह-जगह लोग पेड़ों से चिपक गए और उन्हें कटने से बचाया। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार ने हरे वृक्षों की कटाई पर कानूनी रोक लगाई, जो आंदोलन की बड़ी सफलता थी। इसके अलावा, दूसरे दौर में लोगों ने अलग-अलग तरह से पेड़ लगाए।

 

इस आंदोलन का विस्तार बड़े बांधों का विरोध हुआ। इसके दबाव में केन्द्र सरकार ने माधव गाडगिल की अध्यक्षता में गाडगिल समिति बनाई। यहां हर साल अप्पिको की शुरूआत वाले दिन 8 सितम्बर को सहयाद्री दिवस मनाया जाता है।

 

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि जो अप्पिको आंदोलन कर्नाटक के पश्चिमी घाट में शुरू हुआ था, अब वह फैल गया है। इस आंदोलन ने एक नारा दिया था उलीसू, बेलासू और बालूसू। यानी जंगल बचाओ, पेड़ लगाओ और उनका किफायत से इस्तेमाल करो। यह आंदोलन आम लोगों और उनकी जरूरतों से जुड़ा है, यही कारण है कि इतने लम्बे समय तक चल रहा है। अप्पिको को इस इलाके में आई कई विनाशकारी परियोजनाओं को रोकने में सफलता मिली, कुछ में सफल नहीं भी हुए। लेकिन अप्पिको का दक्षिण भारत में वनों को बचाने के साथ पर्यावरण चेतना जगाने में अमूल्य योगदान हमेशा ही याद किया जाएगा। 

 



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