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पर्यावरण | खबरदार
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स्टेट ऑव एन्वायरन्मेंट रिपोर्ट इंडिया, २००९ के अनुसार,http://hindi.indiawaterportal.org/sites/hindi.indiawaterpo
rtal.org/files/StateofEnvironmentReport2009.pdf
:

• भारत में लगभग १४६.८२ मिलियन हेक्टेयर जमीन जल या वायु-अपरदन अथवा क्षारीयता, अम्लीयता आदि के कारण क्षरण का शिकार है। इसका एक बड़ा कारण जमीन के रखरखाव के अनुचित तरीकों का अमल में लाया जाना है।

• पिछले पचास सालों में भारत की आबादी तीन गुनी बढ़ी है जबकि इस अवधि में कुल कृषिभूमि में मात्र २०.२ फीसदी का इजाफा हुआ है(साल १९५१ में कुल कृषिभूमि ११८.७५ मिलियन हेक्टेयर थी जो साल २००५-०६ में बढ़कर १४१.८९ मिलियन हेक्टेयर हो गई)। कृषिभूमि में यह विस्तार अधिकतर वनभूमि या चारागाहों के नाश की कीमत पर हुआ है। कृषिभूमि का एक तरफ विस्तार हुआ है लेकिन दूसरी तरफ प्रति व्यक्ति कृषिभूमि के परिणाम में कमी आई है।

•  देश के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी हिस्से में झूम की खेती प्रचलित है। यह खेती का बड़ा अवैज्ञानिक तरीका है। नवीनतम आकलन के मुताबिक १८७६५.८६ वर्ग किलोमीटर यानी कुल भौगोलिक क्षेत्र के ०.५९ फीसदी जमीन पर झूम की खेती प्रचलित है। झूम की खेती का प्रभाव पर्यावरण के लिहाज से बड़ा विनाशकारी है। पहले किसी जमीन पर खेती की इस विधि से एक बार फसल काटने के बाद दोबारा १५-२० साल बाद ही फसल काटने की नौबत आती थी लेकिन अब यह अवधि घटकर २-३ साल रह गई है। खेती की विधि से बड़े पैमाने पर वनों का नाश हुआ है और भूमि की उर्वरा शक्ति कम हुई है। जैव विविधता पर भी भयानक असर पड़ा है।आंकड़ों के मुताबिक झूम की खेती वाली सर्वाधिक जमीन उड़ीसा में है।

•  साल १९९१-९२ में उर्वरकों का इस्तेमाल प्रति हेक्टेयर ६९.८ किलोग्राम था जो साल २००६-०७ में बढ़कर ११३.३ किलोग्राम हो गया। इन सालों में उर्वरकों के इस्तेमाल में ३.३ फीसदी की दर से बढ़ोत्तरी हुई। यूरिया का इस्तेमाल अत्यधिक मात्रा में हो रहा है। उर्वरकों में नाइट्रोजन-फास्फेट-पोटाशियम का अनुपात ४-२-१ होना चाहिए जबकि फिलहाल यूरिया का इस्तेमाल ६-२ और ४-१ के अनुपात में हो रहा है।योजना आयोग की स्थायी समिति का कहना है कि नाइट्रोजन आधारित उर्वरक पोटोस या फास्फेट आधारित उर्वरक की तुलना में ज्यादा अनुदानित हैं इसलिए इसका ज्यादा फायदा उन इलाकों और फसलों को होता है जहां नाइट्रोजन आधारित उर्वरक की जरुरत ज्यादा है। यूरिया के ज्यादा इस्तेमाल का बुरा असर भूमि की उर्वरा शक्ति पर पड़ रहा है।

• देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के २.७९ फीसदी हिस्से यानी ९१६६३ वर्ग किलोमीटर पर पेड़ हैं। साल २००३ से २००५ के बीच कुल वनाच्छादित भूमि में ७२८ वर्ग किलोमीटर की कमी आई है। जिन राज्यों में वनाच्छादन में कमी आई उनके नाम हैं नगालैंड(१३२ वर्ग किलोमीटर), मणिपुर(१७३ वर्ग किलोमीटर), मध्यप्रदेश( १३२ वर्ग किलोमीटर) और छ्त्तीसगढ़( १२९ वर्ग किलोमीटर)। सुनामी के कारण अंडमान निकोबार में १७८ वर्ग किलोमीटर जमीन से वनाच्छादन का नाश हुआ।
 
• साल २००५ के आकलन के मुताबिक देश में वनाच्छादित भूमि का परिमाण ६७७०८८ वर्ग किलोमीटर है जो कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का २०.६० फीसदी है।

• चावल और गेहूं के डंठल या फिर ऐसे ही कृषिगत अवशिष्ट को जलाने से भूमि की उर्वरा शक्ति में कमी आई है साथ ही वायु-प्रदूषण बढ़ा है। पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश में खेत को फसलों की रोपाई-बुआई के लिए अगात तैयार करने की कोशिश में पहले उगाई गई फसल के दाने काटने के बाद खुले खेत में जलाना एक आम बात है। अकेले पंजाब में सालाना २३ मिलियन टन पुआल और १७ मिलियन टन गेहूं का डंढल इक्ठ्ठा होता है। इस डंठल में प्रयाप्त मात्रा में नाइट्रोजन, फास्फेट और पोटाश होता है लेकिन इसे जमीन में गलाने के बजाय खुले खेत में जला दिया जाता है। इससे जमीन की उपरली तीन इंज की परत में इतनी गरमी पैदा होती है कि उसमें मौजूद नाइट्रोजन, फास्फेट और पोटाश का संतुलन बदल जाता है। कार्बन अपने मोनो आक्ससाइड रुप में हाव मिल जाता है और नाइट्रोजन, नाइट्रेट के रुप में बदल जाता है। इससे पंजाब की कृषिभूमि में नाइट्रोजन, पोटाश और फास्फेट की कुल ०.८२४ मिलियन टन मात्रा की हानि होती है जो इस राज्य में होने वाली कुल उर्वरक खपत का ५० फीसदी है।

• गंगा, ब्रह्मपुत्र और कोसी जैसी नदियां अपने साथ बहुत सारी अपरदित मिट्टी ढोकर लाती है। यह अपरदित मिट्टी अलग अलग रुप में नदी की पेटी में जमा होता है। पर्वतीय हिस्सों में वर्षा और नदियों के कारण होने वाले भू-अपरदन से भूस्खलन होता है और बाढ़, वनों के विनाश, चारागाहों के अतिशय दोहन, खेती के अवैज्ञानिक तौर तरीके, खनन तथा विकास परियोजनाओं को वनभूमि के आसपास लगाने से भूमि का हरित पट्टी वाला हिस्सा लगातार नष्ट हो रहा है। लगभग ४ मिलियन हेक्टेयर हरितभूमि इन कारणों से नष्ट हुई है।

• भारत में भूमि अपरदन की दर प्रति हेक्टेयर ५ से २० टन है। कहीं कहीं यह मात्रा प्रति हेक्टेयर १०० टन तक पहुंच जाती है। भारत में सालाना लगभग ९३.६८ मिलियन हेक्टेयर जमीन पानी के कटाव की जद में आती है और ९.४८ हेक्टेयर जमीन वायु अपरदन की चपेट में पड़ती है। अपरदन के कारण एक तरफ तो जमीन की ऊपरी उपजाऊ परत का नुकसान होता है दूसरी तरफ पानी के स्रोतों मसलन कुआं, बावड़ी आदि भी मिट्टी से भरते जाते हैं।

• भारत में २२८.३ मिलियन हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र शुष्क, अर्ध-शुष्क कोटि में आते हैं। राजस्थान के पश्चिमी इलाके और कच्छ में लगातार सूखा पड़ता है।

• भारत में वाहनों की कुल तादाद ८ करोड़ ५० लाख है( विश्व के कुल वाहनों की संख्या का १ फीसदी) वाहनों की संख्या में बढ़ोत्तरी और पेट्रो आधारित परिवहन के लिए बढ़ते दबाव के कारण वायु प्रदूषण का खतरा पहले की तुलना में कहीं ज्यादा बढ़ा है।वाहनों से होने वाले प्रदूषण की खास बात यह है कि इससे बचा नहीं जा सकता क्योंकि वाहन धरती से एकदम नजदीक की वायु को प्रदूषित करते हैं।

• ऊर्जा-उत्पादन क्षेत्र में कोयले की सर्वाधिक खपत होती है। देश में उत्पादित कुल बिजली का ६२.२ फीसदी हिस्सा कोयला आधारित विद्युत-संयंत्रों पैदा करते हैं। इस लिहाज से भारत बिजली उत्पादन के मामले में कोयले पर बहुत ज्यादा निर्भर है और ठीक इसी कारण कार्बन जनित उत्सर्जन के मामले में भी भारत की अच्छी खासी हिस्सेदारी है।

• साल २००६-०७ में भारत में बिजली उत्पादन के कारण ४९५.५४ मिलियन टन कार्बन डायआक्साइड गैस का उत्सर्जन हुआ। बहरहाल कार्बन डायआक्साइड के उत्सर्जन के मामले में विश्व में भारत की हिस्सेदारी सिर्फ ५ फीसदी है। इस तरह कुल आबादी के आदार पर तुलना करके देखें तो वायुमंडल में उत्सर्जित कुल कार्बन डायआक्साइड में भारत का हिस्सा एतिहासिक रुप से कम है।
 
• भारत में उद्योगों के बाद सबसे ज्यादा बिजली की खपत घरों में होती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-३ के आकलन के अनुसार भारत के ७१ फीसदी परिवार भोजन पकाने के लिए ठोस ईंधन का इस्तेमाल करते हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले ९१ फीसदी परिवार भोजन पकाने के लिए ठोस ईंधन का इस्तेमाल करते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-३ के अनुसार देश के ६० फीसदी से ज्यादा परिवार रोजाना के इस्तेमाल के लिए ईंधन के रुप में उपले, कंडे और लकड़ी जैसे परंपरागत स्रोतों का इस्तेमाल करते हैं। इससे बड़ी मात्रा में वातावरण में कार्बन डायआक्साइड या फिर कार्बन मोनो आक्साइड (दहन अगर पूर्ण रुप से ना हो) उत्सर्जित होता है और वातावरण में हाइड्रो कार्बन का निर्माण होता है।

•  यक्ष्मा यानी टीबी का एक प्रमुख कारक खाना पकाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला ठोस ईंधन है। जो परिवार खाना पकाने के लिए लिक्विड पेट्रोलियम गैस, प्राकृतिक गैस या फिर बायोगैस का इस्तेमाल करते हैं उनमें प्रति एक लाख व्यक्तियों में यक्ष्मा(टीबी) के मरीजों की तादाद २१७ थी जबकि जो परिवार खाना पकाने के लिए पुआल, भूसी, लकड़ी या घास-पत्ते आदि का इस्तेमाल कर रहे थे उनमें प्रति एक लाख व्यक्ति में यक्ष्मा के रोगियों की तादाद ९२४ पायी गई।

•  खेती की भारत की अर्थव्यवस्था में केंद्रीय भूमिका बनी हुई है और ठीक इसी कारण सालाना सबसे ज्यादा पानी का आबंटन खेती को होता है। वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल इस्तेमालशुदा पानी का ९२ फीसदी खेतिहर क्षेत्र को हासिल होता है(मुख्यतया सिंचाई के रुप में)।

• साल १९९५ में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने देश की १८ बड़ी नदियों के सर्वाधिक प्रदूषित हिस्से की पहचान की। आश्चर्य नहीं कि इनमें से अधिकतर हिस्से वही थे जिनके किनारे शहर बसे हुए हैं।

• फ्लूराइड, आर्सेनिक, आयरन आदि भूगर्भीय प्रदूषकों से देश के १९ राज्यों के कुल २०० जिलों में भूजल संदूषित हुआ है। अध्ययनों से जाहिर होता है कि फ्लूराइड के लंबे समय तक इस्तेमाल से दांतों में क्षरण हो सकता है और आर्सेनिक के कारण त्वचा का कैंसर सहित अन्य बीमारियां हो सकती हैं।

• भारत की एक बड़ी समस्या जल प्रदूषण है। भारत में भू-सतह पर मौजूद ७० फीसदी जल-स्रोत जैविक, रासायनिक अथवा अकार्बनिक पदार्थों के कारण प्रदूषित हैं। भूमिगत जल का भी एख बड़ा हिस्सा इन्हीं कारणों से प्रदूषित हो रहा है।

•  अध्ययनों से जाहिर होता है कि गंगा नदी में इंडोसल्फान, मिथाइल मालाथियान, मालाथियान, डाइमिथोटेट जैसे कई खतरनाक रसायन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृक मानकों से कहीं ज्यादा मात्रा में मौजूद हैं।
 
•  उर्वरकों के अत्यधिक इस्तेमाल से नदियों और झीलों में विषाक्त पदार्थ जमा हो रहे हैं। हैदराबाद की हुसैनसागर और नैनीताल की झील इसका प्रमुख उदाहरण है। .

• केद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों ने कुल १५३२ उद्योगों को सर्वाधिक प्रदूषक की श्रेणी में रखा है। इनमें से कोई भी उद्योग उत्सर्जन संबंधी मानकों का पालन नहीं करता।

• देश के कुल २२ बड़े शहरों में घरेलू इस्तेमाल के कारण रोजाना ७२६७ मिलियन लीटर पानी संदूषित होता है। इसमें मात्र ८० फीसदी पानी को ही दोबारा इस्तेमाल में लाने के लिए संयंत्रों में इक्ठ्ठा किया जाता है।

• भारत में सालाना २००० मिलियन टन ठोस कचड़ा पैदा होता है।



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