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चर्चा में.... | असम के चाय-बागान में भुखमरी से मौत

असम के चाय-बागान में भुखमरी से मौत

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published Published on Feb 23, 2012   modified Modified on Feb 23, 2012
इतिहासकार बताते हैं कि अंग्रेजीराज के समय देश के पूर्वोत्तर के चाय-बागानों में काम करने वाले मजदूर बड़ी दीन-दशा में थे, तकरीबन बंधुआ मजदूर की दशा में। आजादी के बाद, इनकी दशा कुछ सुधरी। गुजरे कुछ दशकों में देश के चाय-उद्योग ने उन सालों में भी मुनाफा कमाया जिन सालों को आर्थिक-प्रगति के लिहाज से बेहतर नहीं माना जाता। ठीक इसी कारण, असम के चाय-बागानों से आने वाली भुखमरी की खबर हैरतअंगेज है। एशियन ह्यूमन राइटस् कमीशन की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि असम सरकार चाय-बगानों में काम करने वाले मजदूरों के जीवन के अधिकार की रक्षा में नाकाम रही है और असम के कछर जिले के चाय-बगानों में काम करने वाले कम से कम दस मजदूर गुजरे अक्तूबर 2011 से अबतक  भुखमरी के कारण मौत की भेंट चढ़े हैं।(देखें नीचे दी गई लिंक)
 
 
एशियन ह्यूमन राइटस् कमीशन ने गुवाहाटी और नई दिल्ली में संबंधित अधिकारियों के सामने इस मसले को उठाया है। इसमें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी शामिल हैं। कमीशन ने असम के चाय बागानों में भुखमरी के शिकार होने वाले मजदूरों के संबंध में असम के ही एक मानवाधिकार संगठन बाराक ह्यूमन राइटस् प्रोटेक्शन कमिटी की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा है कि दशकों तक दयनीय दशा में काम करने के कारण भुखमरी जनित कमजोरी और बीमारी का शिकार होकर दस मजदूरों की मृत्यु हुई है। रिपोर्ट के अनुसार, इन मजदूरों को औसतन 55 रुपये की मजदूरी मिली जबकि असम में न्यूमतम मजदूरी 100 रुपये प्रतिदिन है।


जिन 10 मजदूरों की मृत्यु हुई है वे एक निजी कंपनी भुवन वैली टी ईस्टेट के लिए काम करते थे। इस कंपनी के बंद हो जाने के कारण कम से कम 1000 मजदूरों को जीविका से हाथ धोना पडा जिसमें आधे स्थायी तौर पर काम कर रहे थे और आधे दिहाड़ी मजदूर के रुप में। कंपनी जिस समय बंद नहीं हुई थी, उस समय मजदूरों से काम ज्यादा लिया जाता था, और मजदूरी कम दी जाती थी। मजदूरों को कोई चिकित्सीय सुविधा भी कंपनी की तरफ से नहीं दी गई थी। रिपोर्ट के अनुसार कंपनी के बंद होने के बाद बकाया मजदूरी और प्राविडेंट फंड का भुगतान रोक दिया गया।


रिपोर्ट में कहा गया है कि चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों के अधिकार से संबंधित प्लांटेशन लेबर एक्ट में वर्णित आवास, न्यूनतम मजदूरी और बुनियादी चिकित्सा सुविधा की इस मामले में अवहेलना हुई है। कंपनी के बंद होने से जिन मजदूरों ने जीविका का साधन खोया उन्हें ना तो बुनियादी चिकित्सा सुविधा हासिल थी और ना ही उनके रोज की रोटी का कोई इंतजाम हो सका।  भुखमरी से मौत का एक कारण यह भी रहा कि ये मजदूर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत दिये जाने वाले अनाज या फिर राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत प्रदान की जाने वाली सुविधाओं से भी वंचित रहे। मनरेगा के अन्तर्गत दिया जाने वाला रोजगार इन्हें भुखमरी से बचाने में कामयाब ना हो सका।  रिपोर्ट में ऐसे अनेक मजदूरों के नाम दिए गए हैं जिन्हें सरकारी व्यवस्था ने अपनी सूची में गरीबी रेखा से ऊपर का मानकर नाम दर्ज कर रखा था, जबकि वे घनघोर गरीबी में थे और बमुश्किल एक जून की रोटी का जुगाड़ कर पा रहे थे।


 बाराक ह्यूमन राइटस् प्रोटेक्शन कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार 1951 के लेबर एक्ट का उल्लंघन करके मजदूरों को बुनियादी चिकित्सा, साफ पेयजल, साफ-सफाई जैसी सुविधाएं नहीं दी गईं। कमिटी का कहना है कि स्थानीय प्रशासन स्थिति से आगाह किए जाने के बावजूद मजदूरों की जीवन-रक्षा में नाकाम रहा। रिपोर्ट में चेतावनी के स्वर में कहा गया है कि इलाके में कुछ और मजदूर भोजन और चिकित्सा के अभाव में दम तोड़ सकते हैं। रिपोर्ट में कुछ ऐसे छात्रों के नाम भी बताये गए हैं जिन्होंने अभाव की दशा में पढ़ाई छोड़कर जीविका चलाने के लिए जंगल से लकड़ी बटोरने का काम शुरु कर दिया है। रिपोर्ट के अनुसार, तात्कालिक तौर पर इन्हें राशन और दवाइयां नहीं उपलब्ध करायी गई तो इनकी भी नियति वही होगी जो भुखमरी के शिकार दस मजदूरों की हुई।


रिपोर्ट के अनुसार, भुवन वैली टी ईस्टेट(जिला कछार, असम) में काम कर रहे भुखमरी से दम तोड़ने वाले(अक्तूबर 2011 से) मजदूरों के नाम हैं- रामेश्वर कुर्मी, 45 वर्ष;  सुबासिनी पॉल, 80 वर्ष; सचीन्द्र री, 32 वर्ष; श्यामचरण बौड़ी, 55 वर्ष ; नागेन्द्र बौरी, 55 वर्ष ;  सोनामणि पांडेय, 40 वर्ष ; भारती काल, 45 वर्ष;  सुषम तांती, 35 वर्ष; रत्ना गोयला, 50 वर्ष; रामाशीष दुसाध, 80 वर्ष.
 


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