Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | जन-आंदोलनों का विचार-- अनुज लुगुन

जन-आंदोलनों का विचार-- अनुज लुगुन

Share this article Share this article
published Published on Mar 28, 2018   modified Modified on Mar 28, 2018
साल 1930 में मार्च महीने की 12 तारीख थी. जैसे हर रोज सूरज निकलता है, वैसे ही उस दिन भी सूरज निकलनेवाला था, फिर भी उन लोगों को सूरज के उगने की प्रतीक्षा थी. यद्यपि उन्हें मालूम था कि वे सरकार के विरुद्ध कदम उठा रहे हैं और उसका परिणाम यातनामयी होगा, लेकिन सबने प्रण कर लिया था कि यदि कदम नहीं बढ़े, यदि आवाज नहीं उठी, तो उनके जीवन का भविष्य और भी अंधकारमय हो जायेगा.
उस दिन भी सूरज उगा और एक सामान्य धोती और गमछा वाले ने सुबह की प्रार्थना के बाद अपनी लाठी संभालकर चलना शुरू किया.

इतिहास में दर्ज है कि उस यात्रा की शुरुआत में 78 लोग शामिल थे, जो यात्रा के दौरान जन सैलाब में तब्दील हो गये. उनका गंतव्य दांडी का समुद्र तट था, लेकिन लक्ष्य स्वराज का था. उन्हें गंतव्य तक पहुंचने की हड़बड़ी नहीं थी, लेकिन उनकी बेचैनी में मुक्ति का ताप था.

अंतत: 24 दिन बाद वे दांडी पहुंचे और वहां उनके नेता ने अपने हाथों से नमक बनाया. वह नेता इतिहास में महात्मा गांधी के नाम से दर्ज हुआ और वह तारीख दांडी यात्रा के नाम पर दर्ज हुई थी. दांडी मार्च एक राजनीतिक प्रयोग था. इसने अपने मुल्क के नागरिकों को ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को बताया कि आम जनता के हित में कानून न हो, तो उसे तोड़ने में डर नहीं होना चाहिए. जन-विरोधी नीतियों के विरुद्ध जन-आंदोलनों का होना जरूरी है.

आज एक मौजू सवाल है कि क्या दांडी मार्च इतिहास में दर्ज हो गयी घटना मात्र थी? क्या आजादी के बाद जन-आंदोलनों की जरूरत खत्म हो गयी? सत्ता वर्ग के चरित्र की वजह से किसी भी समाज में जन-आंदोलन की संभावना हमेशा बनी रहती है. हाल के दिनों में अपने अधिकारों के लिए उठ रहे जनता के स्वर में क्या उस ऐतिहासिक दांडी यात्रा की या सत्याग्रह की वैचारिक झलक नहीं देखी जा सकती है?

कुछ दिनों पहले हुए किसानों के लॉन्ग मार्च ने अचानक फिर से दांडी यात्रा की याद दिला दी. करीब तीस हजार से ज्यादा किसानों ने नासिक से मुंबई तक 180 किलोमीटर की पैदल यात्रा की. अपनी मांगों को लेकर विधानसभा के घेराव की उनकी योजना थी.

भूखे-प्यासे ज्यों-ज्यों वे मुंबई के करीब पहुंच रहे थे, उनका ताप बढ़ रहा था. नंगे पैर चलकर आ रहे उनके पैरों पर जख्म हो गये थे, लेकिन उनके हौसले कम नहीं हुए. अंततः सरकार उनकी मांग मानने के लिए बाध्य हुई और उसने उन्हें पूरा करने का आश्वासन दिया.

किसानों का आंदोलन इन दिनों काफी तेज हुआ है. पिछले वर्ष अप्रैल के महीने में तमिलनाडु के किसानों ने नरमुंडों को लेकर दिल्ली में प्रदर्शन किया था.

उसके बाद सौ से अधिक किसान संगठनों के लाखों किसानों ने दिल्ली में प्रदर्शन किया. उसी तरह राजस्थान, छत्तीसगढ़, लखनऊ, मध्य प्रदेश इत्यादि जगहों में किसान अपनी मांगों को लेकर लगातार शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे हैं. किसान कर्जमाफी के साथ स्वामीनाथन कमिटी की रिपोर्ट को लागू करने की मांग कर रहे हैं.

स्वामीनाथन कमिटी ने साल 2004 में अपनी रिपोर्ट में किसानों की उपज को औसत लागत मूल्य से पचास फीसदी ज्यादा समर्थन मूल्य देने की बात कही है. साथ ही किसानों के कर्ज की ब्याज दरों में कटौती की बात कही है. बाजार और कर्ज की गिरफ्त में फंसे किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो रहे हैं.

पी साईनाथ की रिपोर्ट के अनुसार, नब्बे के बाद डेढ़ दशकों में लाखों किसानों ने आत्महत्या की है. साल 2016 के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक, देश में किसान आत्महत्या की दर 42 फीसदी बढ़ी है. किसानों की त्रासद स्थिति की वजह खेती पर बाजार का नियंत्रण है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हस्तक्षेप से किसानों पर दबाव और अधिक बढ़ गया है, बढ़ रहा है.

किसानी के बाद अब शिक्षा भी बाजार की गिरफ्त में आ गया है. यूजीसी के नये रेगुलेशन के मुताबिक, अब वह विश्वविद्यालयों को अनुदान नहीं देगी. अब विश्वविद्यालय स्वायत्त होंगे और उन्हें स्वयं ‘फंड जेनरेट' करना होगा. इसका स्पष्ट संकेत यह है कि अब विद्यार्थियों की फीस में कई गुना बढ़ोत्तरी होगी. इसके साथ ही अब वैसे ही सेंटर और डिपार्टमेंट खुलेंगे, जो ज्यादा कमाऊ होंगे. यानी बाजार के मुताबिक शिक्षा को चलना पड़ेगा.

जो विषय बाजार के अनुकूल नहीं होंगे, उनकी अब जरूरत नहीं होगी. यह ऐसी व्यवस्था होगी, जो शिक्षा को ज्ञान के बजाय मुनाफे की और शिक्षा क्षेत्र को सेवा के बजाय व्यापार की वस्तु बना देगा. इससे निम्न और सामान्य आय वालों की पहुंच से शिक्षा दूर हो जायेगी. सरकार यह व्यवस्था शिक्षा में गुणवत्ता के नाम पर करके अपने सामाजिक दायित्व से हाथ खींच रही है. इस बात में संदेह नहीं होना चाहिए कि बाजार के चंगुल में फंसकर किसानों की जो दुर्दशा हो रही है, वही दुर्दशा अब शिक्षा, शिक्षक और विद्यार्थियों की होनेवाली है. इन्हीं सब मुद्दों सहित अन्य मांगों को लेकर 23 मार्च को भगत सिंह और उनके साथियों के शहादत के दिन जेएनयू के सैकड़ों छात्र और शिक्षक शांतिपूर्ण मार्च करते हुए संसद जा रहे थे.

एक बड़ा मुद्दा जेंडर जस्टिस का भी था. उनके संसद पहुंचने के पहले ही पुलिस प्रशासन ने उन्हें रोक लिया. बात बढ़ने लगी, तो उन पर बेहरमी से लाठी चार्ज किया गया. उक्त बातों से यह साफ है कि सरकारें किसानों की कर्जमाफी को खैरात समझती हैं और विद्यार्थियों की मांग को बेबुनियाद मानती हैं. यह आर्थिक लक्ष्य और सामाजिक लक्ष्य का बिखंडन है. इस तरह विकास के मूल्यों को हासिल नहीं किया जा सकता.

नब्बे के बाद जन-आंदोलनों का तेजी से उभार हुआ है. उत्पीड़ित समूह और सरकार की नीतियां आमने-सामने हैं. इतिहास में हम दांडी मार्च के महत्व को रेखांकित करते हैं. लेकिन, उसी इतिहास के दिये हुए विचार को जब हम अपने वर्तमान में जीते हैं, तो उसे अप्रासंगिक और गैरजरूरी समझा जाता है. दांडी मार्च अंतिम यात्रा नहीं थी, न ही सत्याग्रह सिर्फ औपनिवेशिक समय की जरूरत थी. जन-विरोधी नीतियों के विरुद्ध लोकतांत्रिक तरीके से आवाज उठाना ही दांडी मार्च का विचार है.

यह विचार आज भी आदिवासियों के विस्थापन विरोधी आंदोलनों में, दलितों-वंचितों, किसानों-विद्यार्थियों एवं अन्य नागरिक अधिकार आंदोलनों में दिखायी देता है. दांडी मार्च ने तो औपनिवेशिक कानून तोड़ा था. पर मौजूदा जन-आंदोलन तो संवैधानिक अधिकारों की ही मांग कर रहे हैं. विचार करना होगा.

https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/people-movements-thoughts-mahatma-gandhi-dandi-travel/1137496.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close