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न्यूज क्लिपिंग्स् | पर्यावरण है जीने का अधिकार: गोपाल कृष्ण

पर्यावरण है जीने का अधिकार: गोपाल कृष्ण

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published Published on Jun 6, 2019   modified Modified on Jun 6, 2019
भारत में पर्यावरण के लिए सबसे बड़ी चुनौती नीतिगत स्तर पर है. पर्यावरण को अगर नुकसान करना बंद कर दिया जाये, तो वह खुद ही सुधरना शुरू कर देता है. एक तरफ तो उसके नुकसान की प्रक्रिया जारी रहती है और साथ ही उसे बचाने की बात होती है. पर्यावरण को नुकसान पहुंचानेवाली नीतियों और परियोजनाओं पर रोक लगायी जाए. उसके बाद ही बचाने के बारे में सोचा जाए. नदी प्रदूषण रोकने के लिए सबसे पहला कदम उन फैक्ट्रियों पर रोक लगाना है, जिनका कचरा नदियों में जाता है.

अर्थशास्त्र, कानून व दर्शन में प्रदूषण और कचरे का प्रकृतिकरण कर दिया गया है. जैसे पेड़ पर फूल और फल लगते हैं, वैसे ही प्रदूषण होगा ही, इसे मान लिया गया है. ऐसे में समाधान कहां से निकलेगा. यह मानना जरूरी है कि प्रदूषण और कचरा पैदा होना अप्राकृतिक है. प्रदूषण के कारण 10 लाख ज्ञात कीड़े-मकोड़ों की प्रजातियां में से 45 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो गयीं. कीड़े-मकोड़ों के कारण ही खाद्यान्न का उत्पादन होता है.

खाद्य उत्पादन में कीड़े-मकोड़ों की, पक्षियों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है. देश-दुनिया की तमाम संस्थाएं पर्यावरण के कारण विलुप्त होनेवाले कीड़े-मकोड़ों पर चकित होती हैं. जब हमने सिस्टम ही ऐसा बना लिया है कि प्रदूषण का उत्पन्न होना तय है और उसके दुष्प्रभाव से कीड़े-मकोड़ों की प्रजातियां विलुप्त होना भी तय है, क्योंकि हम प्रदूषण पर रोक लगाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं.

इस समस्या की जड़ में विज्ञानवाद है. इससे न सिर्फ विज्ञान बल्कि प्रकृति, पर्यावरण और मानवता के लिए खतरा भी पैदा हो गया है. विज्ञानवाद से मेरा मतलब है कि जो भी संस्थाएं विज्ञान का चोला ओढ़ कर बात करती हैं, उन्हें हम वैज्ञानिक मान लेते हैं.

सरकार की वैज्ञानिक संस्थाएं कहती हैं कि नदियों से बह कर समुद्र में जानेवाला पानी बर्बाद हो जाता है, इसलिए नदियों को जोड़ दिया जाए, तो यह अवैज्ञानिक है. नदियों से जो पानी बह कर समुद्र में जाता है, वह बर्बाद नहीं होता, क्योंकि वह जलचक्र का हिस्सा है. वह पानी बादल के जरिये वापस आ जाता है. एक तमिल कहावत है, ‘समुद्र का जल पहाड़ों में होता है.' इसमें सदियों पुराना वैज्ञानिक ज्ञान मौजूद है. हमारा लोक विज्ञान ज्यादा तर्क संगत और वैज्ञानिक है.

जलवायु परिवर्तन एक वैज्ञानिक सत्य है और हर एक देश इससे अलग-अलग तरीके से नहीं निबट सकता. इसके लिए समग्र सोच की जरूरत है. पर्यावरणवाद कभी भी राष्ट्र की सीमाओं में नहीं बंध सकता. अगर किसी देश में पर्यावरण का नुकसान हो रहा है, तो इसको दूसरे देशों को भी भुगतना होगा.

जैसे अफगानिस्तान में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले कुछ रासायनिक हथियार इस्तेमाल किये जाते हैं, तो उसका दुष्प्रभाव पंजाब ओर उसके आसपास के इलाकों में भी देखने को मिलेगा. पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौता बाध्यकारी कानून नहीं है, जो पर्यावरण के हित में नहीं माना जा सकता, लेकिन यह 2020 के बाद की बात है. इससे पहले जो जलवायु समझौता हुआ था, वह क्योटो प्रोटोकाॅल का दूसरा चरण है, वह 2012 से 2020 तक है.

यह 2020 तक पूरे विश्व के लिए एकमात्र जलवायु कानून है. मीडिया और सरकार 2020 के बाद के कानून यानी पेरिस समझौता के बारे में तो बात करते हैं, लेकिन क्योटो प्रोटोकॉल के बारे में बात करना बंद कर दिया है, जो एक बाध्यकारी कानून है. जब हम बाध्यकारी कानून को लेकर ही गंभीर नहीं हैं, तो जो बाध्यकारी नहीं है, उसके प्रति कितने गंभीर होंगे. यह एक बड़ा सवाल है.

पर्यावरण के दुष्प्रभाव से हमारी आनेवाली और मौजूदा पीढ़ी दोनों ही शुद्ध जल, शुद्ध मां का दूध और शुद्ध फल से वंचित रह जायेंगी. हमें आनेवाली पीढ़ियों के लिए इसे संजोना होगा. पर्यावरण में यह अवधारणा है कि हमने पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों को अपने पूर्वजों से प्राप्त नहीं किया है, अपितु अानेवाली पीढ़ियों से उधार लिया है. हमें उन्हें वापस लौटाना है, लेकिन पर्यावरण के नुकसान को प्राकृतिक बना कर, आनेवाली पीढ़ियों के हितों की अनदेखी की जा रही है.

यह आनेवाली पीढ़ियों के साथ अन्याय है. एक और समस्या है अमीर देशों से गरीब देशों में, शहर के अमीर इलाके से शहर के गरीब इलाके में और अमीर शहर से गरीब शहर की तरफ कचरा भेजा जाना. इससे गरीबों के स्वास्थ्य का नुकसान हो रहा है. एक आम समझ है कि प्रदूषण उत्पन्न करनेवाले तत्व को अगर स्थानांतरित कर दिया जाए, तो वह गैर प्रदूषणकारी हो जाती है. इस क्रिया में आप गैर-बराबरी को बढ़ाते हैं.
जो गरीब है, वह पर्यावरण जनित बीमारियों का शिकार होकर पहले से भी ज्यादा गरीब हो जायेगा. तो पर्यावरण के नुकसान से गैर-बराबरी बढ़ती है. जानना जरूरी है कि 194 दिनों तक उपवास करने के बाद ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद जब गंगा का सवाल उठाते हैं, तो असल में वे सभी नदियों और पूरी प्रकृति का सवाल उठाते हैं, लेकिन जो हर स्तर पर उदासीनता है, वह ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है.

जब नदी अपने वास्तविक स्वरूप में बहती रहती है, तो वह भूमि का निर्माण भी करती है. नदियों के बहाव को रोक कर भूमि के निर्माण को रोक दिया गया है. इससे कृषि योग्य भूमि घटती जा रही है. इन सभी नीतिगत हस्तक्षेपों से प्रकृति के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया गया है. यह एक सभ्यतागत संकट को जन्म दे रहा है.

प्रदूषण को लेकर जवाबदेही तय की जानी चाहिए. प्रदूषित जल की जांच करने से पता चल जाता है कि कौन-कौन से प्रदूषित तत्व मौजूद हैं और यदि वैज्ञानिक तौर पर यह संभव हो, तो यह पता लगाया जाना चाहिए कि इन प्रदूषक तत्वों का स्रोत क्या है?

खून की जांच से भी पता लगाया जा सकता है कि उसमें कौन-कौन से हैवी मेटल मौजूद हैं और उनका स्रोत क्या है? यहां सवाल उठाना जाना चाहिए कि आखिर किसकी अनुमति से हमारी नसों, धमनियों, फेफड़ों को प्रदूषित किया जा रहा है? आखिर वे कौन-सी कंपनियां हैं और किन सरकारी नीतियों के तहत यह आपराधिक कृत्य किया जा रहा है?

इन कृत्यों पर आपराधिक मुकदमा दर्ज कराने की कानूनी और न्यायिक व्यवस्था है, लेकिन उस पर काम नहीं हो रहा है. संविधान हमें जीवन जीने का अधिकार देता है, लेकिन पर्यावरण के नुकसान से हमारे जीवन जीने के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है और इसकी जवाबदेही सरकार की है.
(आरती श्रीवास्तव से बातचीत पर आधारित)

https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1290587.html


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