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न्यूज क्लिपिंग्स् | जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र होने का भ्रम: बिना राजनीतिक आज़ादी के कोई आर्थिक आज़ादी टिक नहीं सकती

जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र होने का भ्रम: बिना राजनीतिक आज़ादी के कोई आर्थिक आज़ादी टिक नहीं सकती

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published Published on Dec 13, 2020   modified Modified on Dec 14, 2020

-द प्रिंट,

अब यह बहस बेमानी है कि नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने जो यह कहा कि ‘हमारे यहां लोकतंत्र कुछ ज्यादा ही है’ उसका क्या मतलब है. आप उन लोगों के साथ भी जा सकते हैं जो इस बयान से नाराज हैं और इसे सीमित लोकतंत्र की मोदी सरकार की अवधारणा का एक बेबाक नौकरशाह के मुंह से किया गया खुलासा मानते हैं.

या आप इस बृहस्पतिवार को ‘इंडियन एक्सप्रेस ‘ में छपे कांत के लेख से प्रभावित भी हो सकते हैं, जिसमें उन्होंने कहा कि उन्हें गलत समझा गया और उनके बयान को तोड़मरोड़ कर पेश किया गया. वे तो बस इतना कहना चाहते थे कि आप भारत में आर्थिक सुधारों की गति की तुलना चीन में इसकी गति से नहीं कर सकते क्योंकि ‘हमारे यहां लोकतंत्र कुछ ज्यादा ही है’.

या फिर, बेशक आप दोनों पक्षों की बातों पर गौर कर सकते हैं. लेकिन ‘दोनों पक्ष’ इन दिनों एक विवादास्पद मुहावरा बन गया है. इसलिए मैं तो बस किनारा कर ले रहा हूं.

बहरहाल, एक महत्वपूर्ण सवाल जरूर उभरता है— लोकतंत्र आर्थिक वृद्धि के लिए अच्छा है या बुरा? कितना लोकतंत्र अच्छा है और कब यह जरूरत से ज्यादा हो जाता है? क्या सीमित लोकतंत्र जैसी भी कोई चीज होती है?

लगभग दो दशक पहले, मैं नई दिल्ली में एशिया सोसाइटी के एक सम्मेलन में इस बहस में फंस गया था. इसमें मैं उस पेनल में शामिल था जिसमें हांगकांग के ताकतवर रियल एस्टेट व्यवसायी, हांग लुंग ग्रुप के मालिक और बातूनी परमार्थी रॉनी चान भी शामिल थे. उस समय वे चीन में, खासकर शांघाई के विकास में भारी निवेश कर रहे थे. सम्मेलन में शामिल लोगों ने उनसे पूछा था कि वे भारत में कब निवेश शुरू करेंगे? रॉनी ने बड़ी बेबाकी से जवाब दिया था— मैं यहां कोई निवेश नहीं करने जा रहा हूं क्योंकि आपके यहां लोकतंत्र कुछ ज्यादा ही है. अगर आपके यहां लोकतंत्र थोड़ा कम रहता तो मैं निवेश करता. श्रोताओं में लहर दौड़ गई. लेकिन तथ्य और आंकड़े रॉनी के पक्ष में थे. चीन बम-बम कर रहा था और भारत 1991 के आर्थिक सुधारों की पहली लहर के बाद जद्दोजहद कर रहा था.

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


शेखर गुप्ता, https://hindi.theprint.in/opinion/national-interest/fallacy-of-too-much-democracy-no-economic-freedoms-can-thrive-without-political-freedoms/188550/


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