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न्यूज क्लिपिंग्स् | पूंजीवाद और लोकतंत्र के ऐतिहासिक रिश्तों के आईने में संवैधानिक मूल्यों की परख

पूंजीवाद और लोकतंत्र के ऐतिहासिक रिश्तों के आईने में संवैधानिक मूल्यों की परख

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published Published on Jan 30, 2022   modified Modified on Feb 3, 2022

-जनपथ,

प्रस्‍तुत लेख पॉपुलर एजुकेशन एंड ऐक्‍शन सेंटर (पीस), दिल्‍ली द्वारा बीते वर्ष अक्‍टूबर में संवैधानिक मूल्‍यों पर शुरू की गयी एक फैलोशिप के तहत चलाए गए अभिमुखीकरण सत्र में दिए गए पहले ऑनलाइन व्‍याख्‍यान का संपादित रूप है। पीस के मुख्‍य कार्यकारी और प्रशिक्षक अनिल चौधरी ने सामाजिक-आर्थिक न्‍याय, पत्रकारिता और कला व संस्‍कृति के फैलोज़ को इस व्‍याख्‍यान में संबोधित किया था।

संपादक

गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए जो सबसे महान कार्य किया था वह था एक गिरमि‍टिया मजदूर रामनाथन को मालिक बदलने की इजाजत दिलवाना। यूरोप में दास प्रथा के समय दास भूमि और भू-स्वामी से जुड़ा था। दास अपने स्वामी को छोड़ नहीं सकता था। वह अपनी मनमर्जी से अपने मालिक का चुनाव नहीं कर सकता था। उस समय इन दासों को मालिक बदलने की इजाज़त दिलवाना एक क्रांतिकारी काम था। इसी कदम ने यूरोप में आगे चलकर दास प्रथा को समाप्‍त कर पूंजीवाद की नींव रखी।

सत्रहवीं सदी में अंग्रेजों ने भारतियों को गुलाम बना कर विदेश भेजना शुरू किया। मजदूरों से कागज पर अंगूठे का निशान लगवा कर एक एग्रीमेंट (अनुबंध) करते थे उसे मजदूर और मालिक गिरमिट कहते थे। इसी दस्तावेज के आधार पर मजदूर गिरमिटिया कहलाते थे। हर साल 10-15 हज़ार मजदूर गिरमिटिया बना कर फिजी, ब्रिटेन, डच गुयाना, ट्रिनीदाद टोबेगो, नटाल (दक्षिण अफ्रीका) भेजे जाते थे। यह सब सरकारी नियम के तहत था। इस कारोबार को करने वालों को सरकारी संरक्षण प्राप्त था। सन 1840 के आस-पास यूरोप में दास प्रथा पूरी तरह से खत्म हुई। 1770 के बाद यूरोप में एक नया तबका उभरा जो भूमि और स्वामी से जुडा हुआ नहीं था। वह गुलाम नहीं था। वह एक काम से भी जुड़ा हुआ नहीं था। उसको स्वतंत्रता थी मशीन पर काम करने की। यह तबका गाँव से शहर आया था। इसे मजदूर कहा गया। पूंजीवाद का विकास शहरों में हो रहा था। शहरों में ही कल कारखाने लग रहे थे। मशीनों का विकास हो रहा था। इन मशीनों पर काम करने के लिए जरूरी था कि दासों को मुक्त किया जाय। खेती के साथ-साथ वह मशीनों पर काम करने के लिए स्वतंत्र हो। पूंजीवाद का विकास शहरों में हो रहा था इसलिए नागरिक को सिटिजन कहते हैं जिसका सीधा सम्बन्ध सिटी (शहर) से था। गाँव वालों को सिटिजन नहीं माना जाता था। सिटिजन के लिए जरुरी था कि वह सिटी में रहे, वहां कार्य करे।

दासों को भू-स्वामी से मुक्त करना पूंजीवाद की जरूरत थी। इसी वजह से स्वतंत्रता-समानता पैदा हुई और नारे बने। स्वतंत्रता-समानता धीरे-धीरे मुख्यधारा के अंदर साहित्य के जरिये, आंदोलनों में नारे के रूप में आते गए। यह नारा सबसे पहले 1871 में पेरिस कम्यून में लगा। फिर रूसो, वाल्टेयर जैसे दार्शनिकों ने इस पर लिखना शुरू किया। पूंजीवाद का उद्भव जिन परिस्थितियों में हुआ उसके बाद उसके विकास के लिए जरूरी था कि समानता, स्वंतंत्रता, बंधुत्व और न्याय की बातें की जाएं। धीरे-धीरे दास प्रथा को खत्म किया जाने लगा। दास प्रथा को समाप्त करने में इस स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय का महत्वपूर्ण स्थान है जो दास प्रथा को समाप्त करने में एक वैचारिक आधार बना।

पूंजीवाद को अपने विकास के लिए जरूरत थी एक ऐसे राजनैतिक ढांचे की जिसकी मदद से सत्ता पर काबिज हो सके। उस ढांचे के रूप में डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (प्रतिनिधित्व आधारित जनतंत्र) की अवधारणा थी। ऐसा नहीं है की केवल एम.पी. और एम.एल.ए. चुनकर ही जनतंत्र लाया जा सकता है। ग्राम सभाओं में जो होता है क्या वह जनतंत्र नहीं है? उसमें कोई प्रतिनिधि नहीं होता है। गाँव सभा का हर व्यक्ति गाँव सभा का मेंबर है। उसे मेंबरशिप के लिए कोई सर्टिफिकेट नहीं लेना पड़ता है। उसकी मेंबरशिप के लिए कोई कार्ड नहीं होता है। ग्राम सभा की बैठकों में सभी हिस्सेदारी करते है। क्या वह जनतंत्र नहीं है? लेकिन यह जो रिप्रेजेंटेटिव (प्रतिनिधित्व) वाली व्यवस्था है, इसके ऊपर एक बार पूंजी का वर्चस्व हो जाय तब फिर कोई इसे डिगा नहीं सकता क्योंकि यह देखने में सबकी लगती है लेकिन होती नहीं है। इस पर कब्ज़ा पूंजी का होता है।

पूंजीवाद और डेमोक्रेसी का जो रिश्ता है वह वाकई में जन्म का रिश्ता है और एक-दूसरे का भला करने के लिए है। यह प्रतिनिधित्व वाला जनतंत्र बिना पूंजी के चल नहीं सकता है। बिना पूंजी के ग्राम सभा चल सकती है, लेकिन यह ग्राम सभा पूरे भारत में नहीं चल सकती। 100 करोड़ लोग बैठक करके फैसला नहीं कर सकते। वे देश स्तर पर बैठकों में हिस्सा नहीं ले सकते। तब क्या करना होगा? चुनाव लड़ना होगा। प्रतिनिधि चुनना होगा और प्रतिनिधि चुनने से ही पैसे का खेल शुरू हो जाता है। इस रिप्रेजेंटेटिव डेमोक्रेसी (प्रतिनिधि जनतंत्र) के बारे में रूसी क्रांति के नेता लेनिन ने 100 साल पहले कहा था कि रिप्रेजें‍टेटिव डेमोक्रेसी पूंजी के लिए एक ऐसा कवच है जो उसके लिए सबसे मुफीद है। एक बार इस पर पूंजी का वर्चस्व हो गया तो कोई पार्टी या व्यक्ति बदलने से इस पर कोई असर नहीं होगा। इसलिए जनतांत्रिक दिखने वाली यह व्यवस्था जिसको सब अपना मानते है उसके अंदर पूंजी को कभी नुकसान नहीं पहुंचता। 100 वर्ष पहले लेनिन ने यह बात समझ ली और इसे लिखा तथा लोगों को बताया। उन्होंने एक चुनाव में हिस्सा लेने के बाद दूसरा चुनाव होने से पहले सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया क्योंकि वह समझ चुके थे कि पूंजी का वर्चस्व एक बार स्थापित हो जाने के बाद इसको जड़ से हिलाना बड़ा मुश्किल है।

250 वर्षो में पूंजीवाद का जैसे-जैसे विकास होता रहा वैसे-वैसे डेमोक्रेसी का चरित्र भी बदलता रहा। पूंजीवाद की एक विशेषता है कि वह हमेंशा संकटग्रस्त रहता है। शुरुआती दौर में संकट लम्बे-लम्बे समय के बाद आता था। फिर दो संकटों के बीच में समय कम होता गया। इक्कीसवीं सदी में उसका संकट रोज़ का हो चुका है। पूंजीवाद को यह पता है कि इस संकट का कोई स्थाई इलाज नहीं है। इसलिए वह उसका जवाब ढूंढने में समय बर्वाद नहीं करता, उसका विकल्प नहीं खोजता। उसको पता है कि मुनाफा लगातार बना रहेगा तो संकट आना निश्चित है इसलिए वह विकल्प ढूढने में समय बर्बाद नहीं करता। वह हमेशा संकट को आगे खिसकाने में विश्वास करता है। अभी के लिए जुगाड़ निकालो, 10 वर्ष संकट टल जाये फिर आगे देखा जाएगा। यही पूंजीवाद के 250 वर्षो का इतिहास है।

जब-जब पूंजीवाद का संकट एक हद से ज्यादा बढ़ जाता है तब डेमोक्रेसी को स्थागित कर दिया जाता है। सबसे पहले 1933 से 1943 में जब जर्मनी में हिटलर आया। वह अपने समय की परिस्थितयों की पैदाइश था। पहला विश्व युद्ध उपनिवेश के बंटवारे को लेकर हुआ जिसमें जर्मनी पराजित हुआ। पराजित जर्मनी के ऊपर बहुत सारे जुर्माने किये गए। संकट से उबरने के लिए डेमोक्रेसी को स्थगित करके विश्व को मंदी के संकट से निकाल लिया गया। इस मंदी से जर्मनी कैसे उबरे इसके लिए हिटलर पैदा हुआ। 1972-73 में चिली में अलेंदे प्रधानमंत्री थे। उनकी निर्वाचित सरकार थी। उनकी सरकार को अपदस्य करके पिनोचे नाम के तानाशाह को चिली की सत्ता दे दी गयी। नवउदारवाद, आइ.एम.एफ, विश्व बैंक की योजनाओं के प्रयोग चिली में पिनोचे की तानाशाही में किये गए। ये प्रयोग हो गये। पूरी व्यवस्था बन गयी। फिर इस व्यवस्था के नियम दुनिया के सभी देशों पर लागू हो गये तब फिर चिली में डेमोक्रेसी वापस लायी गयी। 1989 में चिली में चुनाव कराये गए। एक बार फिर वहां चुनी हुई सरकार बनी है। आज हम लोग उसी नवउदारवाद, आइ.एम.एफ, विश्व बैंक की योजनाओं को भुगत रहे हैं। जो लोग चुनाव से बाहर रह कर समाज को बदलने की कोशिश कर रहे है, वे भी समाज को चुनाव के जरिये बदलने आ जाते हैं तो वह भी उसी रंग में रंग जाते हैं। पूंजी का वर्चस्व इतना मजबूत है कि एक बार पूंजी का वर्चस्व हो जाता है तो इस व्यवस्था में पार्टियों और व्यक्तियों के बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

पूरा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


अनिल चौधरी, https://junputh.com/lounge/making-sense-of-constitutional-values-via-capitalism-and-democracy/


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