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न्यूज क्लिपिंग्स् | प्रकृति और पर्यावरण के लिए क्या महत्व रखता है आदिवासियों का सरना धर्म

प्रकृति और पर्यावरण के लिए क्या महत्व रखता है आदिवासियों का सरना धर्म

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published Published on Nov 20, 2020   modified Modified on Nov 21, 2020

-न्यूजलॉन्ड्री,

देश में लंबे समय से आदिवासी समाज अपनी अलग धार्मिक पहचान की मांग करता आया है. झारखंड इस मांग का केंद्र रहा है और हाल के दिनों में यहां इस मांग ने जोर भी पकड़ा है. यही वजह है कि झारखंड के गठन के बाद पहली बार राज्य सरकार आदिवासियों के लिए अलग से धर्मावलंबी यानी सरना आदिवासी धर्म कोड लाने के लिए तीन नवंबर 2020 को एक प्रस्ताव लेकर आई, जिसे एक हफ्ते के भीतर 11 नवंबर 2020 को झारखंड विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर पारित कर दिया गया. अब यह पारित प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा जाएगा.

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनिया में लगभग 37 करोड़ आदिवासी रहते हैं. 2011 की जनगणना की माने तो सिर्फ भारत में आदिवासियों की 705 जनजतियां हैं और हिस्सेदारी देश की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है. जो आबादी के लिहाज से करीबन दस करोड़ होती है. झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य है. यहां की कुल आबादी का 27 प्रतिशत आदिवासी समुदाय के लोग हैं, जो संख्या में लगभग 86 लाख हैं. इनमें 60 लाख वैसे आदिवासी हैं जो ‘सरना’ धर्म को मानते हैं जो कि प्रकृतिवाद पर आधारित है. इसमें प्रकृति की उपासना की जाती है. इनकी भाषा, संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन, परंपरा आदि अलग होती है. जबकि पेड़-पौधे, पहाड़, प्राकृतिक संपदा आदि इनकी पूजा पद्धति होती है. अगर इन सबको सरना धर्म कोड के तहत अलग धर्म की पहचान मिलती है तो दशकों से चले आ रहे इनके संघर्ष की जीत होगी.

11 नवंबर को जब झारखंड विधानसभा में सरना धर्म कोड को लेकर प्रस्ताव पारित हो रहा था तो उस दौरान झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सरना धर्म कोड को जल, जंगल, जमीन से जोड़ते हुए इसे पर्यावरण सरंक्षण और आदिवासियों की घटती आबादी के रोकथाम के लिए अहम बताया.

ऐसा मानना आदिवासी समाज का भी है. आदिवासी मामलों के जानकार अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं, सरना धर्म कोड अगर अलग धर्म के रूप में स्वीकार होता है तो ये पर्यावरण के संरक्षण के लिए एक भविष्य का बड़ा निवेश होगा. देश की एक बड़ी आबादी जो प्रकृति को मानती है. जिसका जुड़ाव जल, जंगल, जमीन से है, उसे संवैधानिक रूप से पहचान मिलेगी तो जाहिर है कि इसके बाद इनकी प्राकृतिक पहचान का और संवर्धन होगा. जिसका सकारात्मक असर पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन आदि पर पड़ेगा.

सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक ग्लैडन डुंगडुग कहते हैं, "आदिवासियों के लिए अलग से सरना धर्म कोड की मांग पर प्रस्ताव पारित करना मैं समझता हूं कि पर्यावरण और मानवजाति के लिए जरूरी कदम है. प्रकृति एक ऐसी शक्ति है जिसके बिना जीवन की परिकल्पना असंभव है. सरना कोड के तहत अगर आदिवासियों को अलग धार्मिक पहचान मिलेगी, तो यह पर्यावरण संरक्षण के लिए कितना महत्वपूर्ण कदम साबित होगा इसे संयुक्त राष्ट्र की संस्था आईपीसीसी (इंटरगर्वमेंटल पैनल ऑफ क्लामेट चेंज) की जारी रिपोर्ट से भी समझा जा सकता है. जिसमें कहा गया है कि आदिवासियों के रीति-रिवाज, परंपरा और उनका प्राकृति से जो लगाव है, वो एक बड़ा रास्ता है जयवायु परिवर्तन को बचाने के लिए."

वो यह भी कहते हैं कि सात दशकों से जिस तरह विकास के नाम पर आदिवासियों के सरना स्थलों को तोड़ा जा रहा है, उस पर भी रोक लगेगी. हालांकि नियमगिरी जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही कह रखा है कि अनुछेद 25, 26 के तहत अन्य धर्मों को जो पूजा पद्धति की आजादी दी गई है उसी तरह आदिवासी समाज को उनके द्वारा किए जा रहे पूजा पद्धति की आजादी को सुनिश्चित किया जाए.

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


मो. असगर खान, https://www.newslaundry.com/2020/11/19/hemant-soren-jharkhand-vidhan-sabha-sarna-dharam-tribal-nature-environment


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