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न्यूज क्लिपिंग्स् | भारत की जेलों में महिला क़ैदियों की ज़िंदगी केवल शोक के लिए अभिशप्त है…

भारत की जेलों में महिला क़ैदियों की ज़िंदगी केवल शोक के लिए अभिशप्त है…

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published Published on Mar 19, 2021   modified Modified on Mar 19, 2021

-द वायर,

सिर्फ एक पंखे और एक बल्ब की जरूरत वाले एक छोटे से कमरे में 45 औरतों को रखने के लिए प्रेसिडेंसी सुधार गृह (करेक्शनल होम) के अधिकारियों ने एक तरकीब निकाली: औरतों की शरीर का नाप लेकर उन्हें उनके आकार के ठीक बराबर की सोने की जगह आवंटित करने की. यह वाकया अपराजिता बोस ने सुनाया.

जेलों में समय बिताने वाले लोगों के साथ ज्यादातार चर्चाओं जो एक शिकायत आमतौर पर सुनने को मिली, वह थी: निजता (प्राइवेसी) नाम की किसी चीज की गैरहाजिरी.

मीना कहती हैं, ‘वहां कभी भी शांति नहीं थी. मैं शांति के लिए प्रार्थना करती थी, या एक ऐसे पल के लिए जब कोई मेरी तरफ न देख रहा हो.’

मीना* ने दहेज संबंधित एक मामले में, चार साल शाहजहांपुर जिला कारागार में बिताए. बाद में यह मामला वापस ले लिया गया.

‘आपको कान में मच्छर के भनभनाने की आवाज पता है? उस आवाज की कल्पना कीजिए, मगर शोक की आवाज के साथ. रोते हुए या शिकायत करते लोग, या कैदियों को डांटते-फटकारते जेल के स्टाफ… ज्यादातर समय ये आवाजें ही कानों में पड़ा करती थीं.’

मीना ने बताया कि 2003 में जेल में एक बार पानी की काफी किल्लत रही. ‘वह भीषण गर्मी का समय था, लेकिन हम चार-पांच दिनों में एक बार से ज्यादा नहा नहीं पाते थे. इस पर भी तीन लोगों पर नहाने के लिए एक ही बाल्टी होती थी. वहां कुछ भी आपका नहीं था- यहां तक कि नहाने का वक्त भी आपका निजी नहीं था.’

मीना बताती हैं कि जेल में बिताए गए चार सालों के दौरान उनसे मिलने सिर्फ दो बार लोग आए. यह दोनों मुलाकातें उनके जेल प्रवास के पहले साल में हुईं.

उन्होंने कहा, ‘मेरा बेटा भी इसी मामले में जेल में था. मेरी बेटी एक बार आई और मेरा भाई भी. लेकिन जेल उनके लिए काफी दूर थी और यहां तक आना काफी खर्चीला भी था. हमारे गांव से अगर कोई मुझसे मिलना चाहता तो उसे बस से 7 घंटे का सफर करना पड़ता.’

चूंकि भारत में महिला जेलों की संख्या काफी कम है, इसलिए महिला कैदियों को अक्सर उनके घरों से काफी दूर कैद करके रखा जाता है. ऐसे में मीना जैसी कैदियों की बेटी या भाई का सफर कोई अपवाद नहीं है. कैदी महिलाएं सामाजिक कलंक को भी ढोती हैं. उन्हें कानूनी तौर पर ही नहीं, नैतिक तौर भी अपराधी माना जाता है- जिसका अर्थ यह है कि अक्सर उनके परिवार द्वारा भी उन्हें छोड़ दिया जाता है.

पीनल रिफॉर्म्स एंड जस्टिस एसोसिएशन की सचिव और पीनल रिफॉर्म इंटरनेशनल की अध्यक्ष रानी धवन शंकरदास अपनी किताब ‘ऑफ वुमेन इनसाइड’ : प्रिजन वॉइसेज फ्रॉम इंडिया (2020) अपनी किताब में लिखती हैं :

जेल, कैदियों को उनके कानूनी अपराध के आधार पर वर्गीकृत कर सकते हैं, लेकिन जेलों का सामाजिक वर्गीकरण, खासतौर पर महिला जेलों में, सिर्फ कानूनी अपराधों से तय नहीं होता है: यह सदियों से रीति-रिवाजों, परंपराओं और अक्सर धर्म द्वारा स्थापित सामाजिक और नैतिक लक्ष्मण रेखाओं को लांघने से संबंधित है. इसके नियम के कानून से भी ज्यादा कठोर होने की उम्मीद की जाती है.

लीला* याद करती हैं, निजता की कमी तो सामान्य बात है. एक बार तो ऐसा हुआ कि बायकुला जेल के अधिकारियों ने एक कदम और आगे जाने का फैसला करते हुए महिलाओं के बैरकों में सीसीटीवी लगाने का फैसला कर लिया.

हम में से कई कैदियों ने इस कदम का विरोध किया- हमने कहा कि अगर आप सीसीटीवी लगाना चाहते हैं, तो आपको यह काम अधिकारियों के दफ्तरों में करना चाहिए, जहां कैदियों के खिलाफ हिंसा होती है और पैसों का लेन-देन (घूस के तौर पर) चलता है.

वे कहती हैं, ‘बाहर के हिस्सों और गलियारों में कैमरा लगने से हमें कोई दिक्कत नहीं थी. हमें बैरकों के भीतर कैमरे लगाने से दिक्कत थी. भीषण गर्मियों में हम अक्सर काफी कम कपड़े पहनकर सोते थे.’

अधिकारियों ने लीला को इस विद्रोह को ‘उकसाने वाले’ के तौर पर देखा और उन्हें सजा देने के लिए एकांत कारावास में डाल दिया गया. लेकिन पांच दिनों के बाद यह मसला प्रेस में आ गया.

‘और इसके बाद एक जज जेल का मुआयना करने के लिए आए और अधिकारियों ने जल्दबाजी में बैरकों के भीतर सीसीटीवी कैमरा लगाने के लिए पाइप डालने और दूसरी तैयारियों को हटा दिया.’

बात बस इतनी नहीं है कि जेल में कोई आप पर लगातार निगाह रखे हुए है. महिला कैदियों ने द वायर  को बताया कि बात इस एहसास की भी है कि आपका आपके शरीर के साथ किए जाने वाले बर्ताव पर कोई नियंत्रण नहीं है.

मीना कहती है, ‘महिला सुरक्षार्मियों के सामने हमें पूरे कपड़े उतारने पड़ते थे और वे उन सभी जगहों पर हाथ रखती थीं, जिसकी आप कल्पना कर सकते हैं. और इसको लेकर आप कुछ भी नहीं कर सकती हैं. आपको अपनी पूर्ण निःशक्तता का एहसास होता है.

लीला कहती है, ‘इस बात से भी कोई फर्क नहीं था कि किसी महिला की माहवारी चल रही है. उन्हें अपने अंतर्वस्त्र उतारकर टांगों को फैलाने के लिए कहा जाता था.’

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


जान्हवी सेन, http://thewirehindi.com/162850/india-women-prisoners-rights/


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