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न्यूज क्लिपिंग्स् | अन्न स्वराज- वंदना शिवा

अन्न स्वराज- वंदना शिवा

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published Published on Mar 16, 2012   modified Modified on Mar 16, 2012
भोजन का अधिकार जीने के अधिकार से जुड़ा हुआ है और संविधान का अनुच्छेद 21 सभी नागरिकों को जीने का अधिकार प्रदान करता है। इस लिहाज से प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक स्वागतयोग्य है। पिछले दो दशकों में भारत में भूख एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है। 1991 में जब आर्थिक सुधार कार्यक्रम शुरू किए गए थे, तब प्रति व्यक्ति भोजन की खपत 178 किलोग्राम थी, जो 2003 में 155 किलोग्राम रह गई। आबादी में सबसे निचले क्रम के 25 फीसदी लोगों की वर्ष 1987-88 में रोजाना खपत 1,683 किलो कैलोरी थी, जो 2004-05 में 1,624 किलो कैलोरी रह गई। जबकि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के मानक क्रमशः 2,400 और 2,011 किलो कैलोरी रोजाना हैं। ये आंकड़े खाद्य सुरक्षा के मोरचे पर आपात उपाय की जरूरत को रेखांकित करते हैं।

हालांकि खाद्य सुरक्षा से संबंधित विधेयक के मसौदे में बड़े खाद्य संकट को नजरंदाज कर दिया गया है और इसमें सारा ध्यान पहले से सीमित लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर केंद्रित किया गया है। खाद्य सुरक्षा के तीन प्रमुख अंग हैं, पारिस्थितिकीय सुरक्षा, खाद्य संप्रभुता और खाद्य सुरक्षा। खाद्य उत्पादन के लिए भूमि, जल और जैव विविधता तीन प्राकृतिक पूंजी मानी जाती हैं, लेकिन इनमें से प्रत्येक गंभीर संकट में है। कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण किसानों के साथ अन्याय तो है ही, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा भी है। यदि उर्वर भूमि नहीं रहेगी, तो फसलों का उत्पादन भी प्रभावित होगा। बीजों की हमारी संपदा को वैश्विक निगमों को सौंपा जा रहा है, जिससे जैव विविधता प्रभावित हो रही है और किसानों के अधिकारों का हनन हो रहा है। बीज संप्रभुता के बिना खाद्य संप्रभुता संभव नहीं है।

मौसम चक्र में परिवर्तन की वजह से हम तेजी से पारिस्थितिकीय सुरक्षा के मामले में असुरक्षित होते जा रहे हैं। इसी कारण पारिस्थितिकी सुरक्षा और लचीलापन प्रदान करने वाली पारिस्थितिकी खेती खाद्य सुरक्षा के लिए आवश्यक हो गई है। खाद्य और कृषि पर ग्लोबल एग्रीबिजनेस के कब्जे और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के पक्षपाती नियमों की वजहों से हम अपनी खाद्य संप्रभुता खोते जा रहे हैं। इसलिए खाद्य सुरक्षा में निष्पक्ष व्यापार और डब्ल्यूटीओ में सुधार आवश्यक है।

जीएमओ और रासायनिक तरीके से संवर्द्धित भोजन को बढ़ावा देने से हमारा भोजन असुरक्षित होता जा रहा है। खाद्य सुरक्षा समिति में बहुराष्ट्रीय निगमों के बढ़ते प्रभावों से नागरिक खाद्य सुरक्षा के अधिकार से वंचित होते जा रहे हैं। सुरक्षित भोजन के बिना खाद्य सुरक्षा संभव नहीं है। आप तब तक लोगों को भोजन मुहैया नहीं करा सकते, जब तक कि आप सबसे पहले पर्याप्त मात्रा में खाद्य उत्पादन सुनिश्चित न कर लें। और खाद्यान्न उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए खाद्यान्न उत्पादकों यानी कृषकों के जीवन यापन के संसाधनों को सुरक्षित रखना होगा। असल में खाद्यान्न पैदा करने का किसानों का अधिकार खाद्य सुरक्षा की दिशा में पहला कदम है। इसी से खाद्य संप्रभुता की अवधारणा ने जन्म लिया है, जिसे हम अन्न स्वराज कह सकते हैं।

खाद्य संप्रभुता सामाजिक-आर्थिक मानवाधिकार से उत्पन्न हुई है, जिसमें भोजन का अधिकार और ग्रामीण आबादी के लिए खाद्यान्न उत्पादन का अधिकार शामिल है। यदि किसी देश की आबादी को अपने अगले समय के भोजन के लिए अनिश्चितताओं और वैश्विक अर्थव्यवस्था में हो रहे उतार-चढ़ाव, भोजन को हथियार के बतौर इस्तेमाल न करने की किसी महाशक्ति की सद्भावना या महंगे परिवहन की वजह से बढ़ती कीमत पर निर्भर रहना पड़े, तब तो वह देश न तो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से और न ही खाद्य सुरक्षा के लिहाज से सुरक्षित होगा। इसलिए खाद्य संप्रभुता का मतलब खाद्य सुरक्षा से भी कहीं आगे है। इसके लिए जरूरी है कि गांव में लोगों के पास उर्वर जमीन हो और उन्हें फसलों का उचित दाम मिले, ताकि वे लोगों का पेट भरते हुए खुद भी सम्मानजनक तरीके से जीवन यापन कर सकें।

हमारी दो तिहाई आबादी खेती और खाद्यान्न उत्पादन से जुड़ी हुई है। हमारे छोटे किसान देश के लिए खाद्यान्न पैदा करते हैं और 1.21 अरब लोगों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराते हैं। पर पिछले एक दशक के दौरान दो लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली। जब हमारे खाद्यान्न उत्पादक ही नहीं बचेंगे, तो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा का क्या होगा? खाद्य उत्पादकों की उपेक्षा भारत इसलिए भी बर्दाश्त नहीं कर सकता, क्योंकि हमारा ग्रामीण समुदाय भुखमरी के गहरे संकट से जूझ रहा है। दुनिया भर में भूख का शिकार आधे लोग खाद्य उत्पादन से ही जुड़े हैं। इसका संबंध बढ़ती लागत, बढ़ते रासायनिक उपयोग और हरित क्रांति के रूप में पेश की गई खाद्यान्न उत्पादन की महंगी प्रणाली से है। लिहाजा, किसान कर्ज में डूब जाते हैं और फिर वे जो कुछ भी पैदा करते हैं, उसे कर्ज चुकाने के लिए बेच डालते हैं।

कृषि उत्पादन से जुड़े समुदाय की भूख की समस्या का समाधान एग्रो इकोलॉजी के सिद्धांत पर आधारित कम लागत वाली टिकाऊ कृषि उत्पादन के रूप में हो सकता है। पारिस्थितिकीय (ऑर्गेनिक) खेती महंगी नहीं है, बल्कि यह खाद्य सुरक्षा की अनिवार्यता है। हमारी ‘हेल्थ पर एकड़’ रिपोर्ट दिखाती है कि पारिस्थितिकी खेती के जरिये हम दो भारत का पेट भर सकते हैं।

(लेखिका चर्चित कृषि वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

http://www.amarujala.com/Vichaar/Columnist/vandna-shiva/Anna-Swaraj-43-272.html


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