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न्यूज क्लिपिंग्स् | अब चूके तो हाथ धो बैठेंगे पानी से- अनिल जोशी

अब चूके तो हाथ धो बैठेंगे पानी से- अनिल जोशी

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published Published on Apr 22, 2016   modified Modified on Apr 22, 2016
पूरे देश में पानी को लेकर झगड़े शुरू हो चुके हैं। कहीं धारा-144 लगी है, तो कहीं बंदूकों के साये में पानी की चौकीदारी हो रही है। जगह-जगह पानी पर ताले लगे हैं। कई जगह रसूखदारों और दबंगों ने पानी पर अपना अधिकार जमा लिया है। पहले फसल चौपट हुई थी और अब लोगों को पीने का पानी तक नहीं मिल रहा। पानी तो खैर पहले भी बिकता था, अब दुर्लभ होने के कारण वह महंगा होता जा रहा है।

इससे गांव और गरीबों पर पानी की मार पड़नी शुरू हो गई है। यह सब तब हो रहा है, जब अप्रैल के महीने में ही पारा 42 डिग्री सेल्सियस पार चुका है। जाहिर है, मई-जून आते-आते राज्यों के हालात बदतर हो जाएंगे।

जल-संकट को देखते हुए राज्यों ने केंद्र के दरवाजे पर दस्तक देनी शुरू कर दी है। उनका ध्यान हर कुछ समय बाद आ धमकने वाली समस्या के समाधान पर कम, और केंद्र से आर्थिक मदद हासिल करने पर ज्यादा है। हर कोई सूखे की मार के लिए पैसा ढूंढ़ रहा है, जैसे पैसा ही पानी का विकल्प हो। पानी ढोने के लिए, संकट से जूझ रहे इलाकों में पहंुचाने के लिए या फिर खेती के नुकसान की भरपायी के लिए पैसा ही काम आएगा। मगर जब एक संसाधन के तौर पर पानी ही खत्म हो रहा है, तो फिर पैसा एक हद से आगे क्या करेगा? हर कुछ साल बाद आ टपकने वाले सूखे की समस्या के लिए जिन नीतिकारों को समाधान और उससे मुकाबले की रणनीति खोजनी चाहिए थी, वे आर्थिक मदद हासिल करके अपने कर्तव्य को पूरा मान लेंगे। इसके बाद पूरी व्यवस्था अगले सूखे का इंतजार करेगी।

हालात जिस तेजी से बदल रहे हैं, उस हिसाब से तो पानी का संकट बढ़ना ही बढ़ना है। हम सरकारों से उम्मीद करते हैं, लेकिन उनके पास भी कोई ठोस हल नहीं है, सिवाय जल वितरण व्यवस्था और परियोजना बनाने के। आजकल टै्रक्टर, ट्रेन, ट्रक आदि सब पानी ढोते हुए दिखाई दे रहे हैं। लेकिन यह भी तब तक ही संभव है, जब तक कि कहीं पानी बचा है। और यह सुविधा भी वहीं तक है, जहां तक इन वाहनों की पहुंच है। हजारों ऐसे विपदाग्रस्त गांव हैं, जहां न पानी पहंुचाने की सुविधाएं हैं, और न ही वहां के लोगों की खैर-खबर लेने के कोई रास्ते।

ऐसी स्थितियों का स्थायी निदान क्या है? अगर इसका कोई हल हो सकता है, तो वह स्थानीय ही हो सकता है। इसका कारण बहुत सरल-सा है। किसी भी जगह में इंसानी बसावट के पीछे हमेशा पानी मुख्य कारक रहा है। देश का एक भी गांव ऐसा नहीं, जिसके भूगोल के पीछे पानी ही एकमात्र कारण न रहा हो। हमारे लिए यह जरूरी हो जाता है कि हम पानी, परंपरा और प्रकृति के सामंजस्य को नए सिरे से समझने की कोशिश करें।

मसलन, पहाड़ों में ही देख लें, तो पर्वतीय गांव वहीं बसे, जहां प्राकृतिक धाराएं रही हैं या फिर वहां से कोई नदी गुजरती हो। इसी तरह, मैदानों में भी तालाब व कुंड ही ठौर-ठिकानों की जगह बने। मनुष्य ने वहीं पर अपनी दुनिया बसाई,जहां पानी की उपलब्धता थी। शहरों की कहानी जरूर इससे थोड़ी अलग रही। वैसे देश के ज्यादातर शहर भी नदियों के किनारे ही बसे हैैं। कई शहर ऐसे भी हैं, जो कभी गांव ही थे। बाद में उनका शहरीकरण हुआ और उनकी बढ़ती जरूरतों को जुटाने के सारे रास्ते खुले, क्योंकि वहीं संपन्नता और कई व्यवस्थाएं पनपीं। यह भी माना जाता है कि पानी को लेकर दुनिया भर में जो समस्याएं लगातार एक के बाद एक सिर उठा रही हैं, उनके पीछे बढ़ता शहरीकरण ही सबसे बड़ा दोषी है। शहरों की प्यास बुझाने के लिए दूर-दराज से पानी लाने की व्यवस्था की जाती है। अपनी नदियों को तो अक्सर वे इस लायक भी नहीं छोड़ते कि उसका पानी पीने लायक रहे।

समस्या सिर्फ इतनी नहीं है। पानी की पुरानी व्यवस्थाएं पूरी तरह समाप्ति की ओर हैं। मसलन, तालाबों को देखें, वे अब गायब हो रहे हैं और जहां बचे हैं, वहां पानी भी बचा हुआ है। ऐसे ही, कुएं, जोहड़, ताल, सब जल प्रबंधन के अभाव में हमारा साथ छोड़ चुके हैं। वर्षा के पानी को सहेजने वाले सारे माध्यम धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं। देश में हर साल लगभग चार अरब लीटर पानी बरसता है, लेकिन उसका ज्यादा से ज्यादा हिस्सा हम बह जाने देते हैं। वर्षा का लगभग पांच फीसदी पानी ही हम संरक्षित कर पाते हैं। पहले वनाच्छादित क्षेत्र व जलागम इसको सहेज लिया करते थे। लेकिन अब जब देश में वन लगातार कम होते जा रहे हैं, तो हमारी जल संरक्षण क्षमताएं भी कम होंगी ही। देश, प्रदेश की सरकारों और स्थानीय निकायों ने ही नहीं, पंचायतों तक ने पानी की परंपराओं को दरकिनार कर दिया। हम विकास ग्रसित समाज ने खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चला दी है। मतलब ठाठ-बाट के सारे साधन तो होंगे, पर पानी नहीं।

वैसे पानी सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, यह सबके दायित्वों से जुड़ा हुआ मामला है। जब पानी ही नहीं होगा, तो फिर सरकार का सारा प्रबंधन धरा का धरा रह जाएगा। यही हो भी रहा है। दूसरी तरफ, जिन प्राकृतिक उत्पादों को सब उपयोग में लाते हैं, उनके संरक्षण के प्रति सामाजिक जिम्मेदारी भी बननी चाहिए। पानी का लगातार बढ़ता संकट आज जिस तरह हर घर, हर गांव और हर शहर पर दस्तक दे रहा है, उससे यह साफ हो गया है कि इससे जुड़ी समस्याओं का निदान सिर्फ सरकारों के बस की बात नहीं। अब किसी को कोसकर काम नहीं चलने वाला। जीना है, तो भविष्य के लिए खुद पानी जुटाना होगा, क्योंकि जल होगा, तो कल होगा।

 

पानी को लेकर हमें अपने आप को सिर्फ आज के संकट तक सीमित नहीं रखना चाहिए। इसके लिए दीर्घकालिक सोच बनाने और समाधान ढूंढ़ने का समय भी आ गया है। हमें जानना होगा कि पानी को लेकर हम कहां खड़े हैं और ऐसी स्थितियों में अगले एक दशक बाद पानी के क्या हालात होने वाले हैं? तीन चीजें हैं, जिन पर तुरंत ध्यान देना जरूरी है। पहली, पानी की बर्बादी रोकने और उसके सीमित उपयोग के अभियान की शुरुआत करना। दूसरी, पानी के उपयोग की प्राथमिकता पर बड़ी बहस। और तीसरी, अब पानी के संरक्षण को कानूनी बाध्यता का रूप दिया जाए- व्यक्तियों के लिए भी, संस्थाओं व सरकारों के लिए भी और उद्योगों के लिए भी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 


http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-water-crisis-and-government-528065.html


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