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न्यूज क्लिपिंग्स् | आंदोलन का जश्न -- मेधा( कुडनकुलम से विशेष रिपोर्ट)

आंदोलन का जश्न -- मेधा( कुडनकुलम से विशेष रिपोर्ट)

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published Published on Jan 22, 2013   modified Modified on Jan 22, 2013


इस बार 31 दिसंबर की शाम कुछ अलग तरह से गुजर रही है। दिल्ली से हजारों किलोमीटर दूर कन्याकुमारी के तटीय गांव इदिंतकराई में। तमिल में इदिंतकराई का अर्थ है- टूटा हुआ तट। यह गांव बंगाल की खाड़ी के जिस तट पर बसा है, वह एक जगह से टूटा है। गांव के नाम में, उसके तट में टूटन भले हो, लेकिन यहां के लोगों मंे कहीं आपसी टूटन नहीं दिख रही और न ही उनके आंतरिक व्यक्तित्व में कोई बिखराव नजर आ रहा। सौ साल पुराने कैथोलिक चर्च की छाया में विराजमान इस गांव में, चर्च के ठीक सामने गणेष मंदिर है। दोनों के बीच एक गहरा आत्मीय रिष्ता झलक रहा है। मंदिर-गिरजा के बीच का यह रिष्ता यहां के लोगों के सौहार्द की कहानी बांच रहा है। हां! कभी अतीत मंे चर्च के कहे से अलग हो, गांव के कुछ लोगों ने हिन्दू धर्म अपना लिया था, लेकिन धर्म बदलने से आपसी संबंध नहीं बदले। सौहार्द और प्रेम की इस कहानी के चलते ही आज इदिंतकराई के लोग दुनिया के सामने साहस, सहनषक्ति, निर्भयता और धीरज की मिसाल पेष कर रहे हैं।


इदिंतकराई के बाजू में स्थित है- कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र। बीस साल पुराने परमाणु प्रकल्प के प्रतिरोध की गाथा भी बीस साल पुरानी है। लेकिन पिछले पांच सौ दिनों से इदिंतकराई सहित प्रकल्प प्रभावित 13 गांवों के दस लाख लोग सघन रूप से संघर्षरत हैं। पिछला साल इन लोगों के जीवन की सर्वाधिक दुर्गति का साल रहा। 127 लोगों ने अनिष्चित अनषन किया, जल सत्याग्रह किया। बच्चों ने स्कूल जाना बंद कर दिया। मर्दों ने मछली पकड़ना बंद कर दिया। महिलाएं घर-द्वार छोड़ आंदोलन की अगली पंक्ति में शामिल हो गईं। ममता को ताक पर रख कर, अपने बच्चों को प्रतीकात्मक रूप से जिंदा बालू में दफनाया। रसोई बंद कर केवल दिन में चावल के कुछ दाने पकाएं। इतने पर भी सरकार से परमाणु संयंत्र को बंद करने का आष्वासन नहीं मिला। लाठी, आंसू गैस और गोलिया मिलीं। इदिंतकराई की जांबाजी सरकार के क्रूर दमन-चक्र के बावजूद अभी कम नहीं पड़ी है। संघर्ष जारी है। इसी संघर्ष को सलाम करने अखिल भारत से लगभग पांच सौ कलाकार, आंदोलनकारी, बुद्धिजीवी नववर्ष की पूर्व संध्या और आंदोलन के पांच सौ दिन पूरे होने पर एकजुटता जताने आए हैं।


उत्सव में शामिल लोगों की विविधता बतला रही है कि सत्य एक ही है और चाहे वह जिस भी भाषा में बोला जाए, जिन दिलों में प्रेम बसता है, उनके कान सत्य के संगीत को सुन ही लेते हैं। तभी भाषा, क्षेत्र, धर्म, जाति, पेषा, ज्ञान, उम्र और लिंग सभी श्रेणियों को भुलाकर लोग यहां एकत्र हुए हैं और सरकारी पाठ्य-पुस्तकों मंे बताए जानेवाली ‘विविधता में एकता’ की निर्जीव किताबी छवि से इतर विविधता के सौंदर्य और प्रेम की जिंदा तस्वीर पेष कर रहे हैं। नर्मदा घाटी के इंदिरा सागर बांध की डूब से पीडि़त कृष्णा देवी आंदोलन को अपना सहारा देने आई हैं। जेल में बंद आंदोलन के साथियों को छुड़ाने की मुहिम छेड़ना चाहती हैं कृष्णा। वह गंाव की महिलाओं को उद्वेलित करती हैं कि तुम चुप न बैठो अपने आदमियों को छुड़ा कर लाओ। उनकी आवाज की बुलंदी महिलाओं को नई स्फूर्ति और ताकत से भर रही है। भला क्यों न हो ऐसा! यह वही कृष्णा बाई हंै, जिन्होंने अपने गांव की डूब के खिलाफ पिछले साल अगस्त के महीने मंे 17 दिनों तक जल सत्याग्रह किया था। अब भी उनके पैर जख्मी हैं। अपने जख्मों को ऐसे दिखा रही हैं, जैसे सैनिक अपने वीरता के तमगे दिखाते हैं। भला क्यों न दिखाएं? कृष्णा देवी भी तो एक योद्धा ही हैं। एक देष की सीमा की रक्षा के लिए कृतसंकल्प है, तो दूसरा सृष्टि की सुरक्षा और सुंदरता के लिए।


आंदोलन की बीस साल पुरानी साथिन आंदोलनधर्मी समाजषास्त्री गैब्रियाला गांव की औरतों के बीच बैठी ऐसे बतिया रही हैं, जैसे बचपन की सहेलियां मैके में लौट सुख-दुख बतियाती हैं। काॅलेज छात्राओं की थियेटर टोली गोवा से आई है। आंद्रया को देख के लगता है कि वह अभी राजनीति का ककहरा सीख रही है। लेकिन राजनीति से परे एक भाषा है जीवन की- जो किसी के आंगन में परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाने के दर्द को समझ जाती है। विनायक सेन तीस तारीख को ही पहुंच गए हैं। उनकी परम-षांत उपस्थिति को देख कौन कहेगा कि मानवाधिकार का यह योद्धा थोड़े समय पहले ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में मनुष्यता के लिए काम करने के अपराध में जेल की यातनाएं सह कर लौटा है। ललिता रामदास, एडमिरल रामदास, राजनीतिषास्त्री अचिन विनायक, वरिष्ठ पत्रकार प्रफुल्ल बिदबई सभी तो आए हैं, इदिंतकराई के साहस को सलाम करने।



 सेलिब्रेटिंग रसिस्टेंस, एसर्टिंग फ्रीडम समारोह के जरिए इदिंतकराई ने दुनिया को यह संदेष दिया है कि आंदोलन को त्योहार की तरह मनाया भी जा सकता है। हम सुंदर कल के लिए कष्ट उठा सकते हैं, जल समाधि ले सकते हैं, लंबे समय तक भूखे रह सकते हैं, अपने बच्चों को अपने हाथों से जीते जी बालू में दफन कर सकते हैं, पुलिस की लाठी-गोली खा सकते हैं, साथियों को शहीद होते देख सकते हैं और यह सब हम हंसते-गाते, उत्सव मनाते हुए कर सकते हैं। यहां के बच्चों के नृत्य मंे जितनी ऊर्जा, आवाज में जितना दम, आंखों में सच्चाई की जितनी चमक और जितना आत्मविष्वास है- मेरा विष्वास है कि एकबार को हमारे देष के कर्णधार दो दिन इन बच्चों के साथ रह लें, तो उनका भी मन बदल जाए। पर कर्णधारों का ऐसा सौभाग्य कहां जो वे इन बच्चों के सानिध्य में जीवन का साक्षात्कार कर पाएं। आंदोलन के अगुआ एसपी उदय कुुमार सही कह रहे हैं कि इदिंतकराई अगले सौ साल में भारत को सैकड़ो नेता देगा।


 इदिंतकराई-प्रवास से अफवाहों के बादल छट रहे हैं। आंखों के सामने आंदोलन का सूरज अपनी प्रचंड ऊर्जा के साथ प्रकट हो रहा है। यहां के मछुआरे दाव-पेंच नहीं जानते। वे यह भी नहीं समझते कि आंदोलन के हित मंे क्या कहना चाहिए और क्या नहीं। इनकी यही सरलता और सहज ईमानदारी बिना कहे हर बात बयान कर रही है। आंदोलन पर अमेरिका प्रायोजित होने का इल्जाम है। आंदोलन के अगुआ उदय कुमार को देषद्रोही बताया गया। लेकिन उदय कुमार के साथ ये तीन दिन ऐसे बीते रहे हैं, जैसे चेतना के उच्चतर सोपान की यात्रा करते किसी योगी के सानिध्य में बीत रहे हों। धर्म, जाति, वर्ग सभी सीमाओं को लांघ यह व्यक्ति अपना घर-बार छोड़ इस गांव में बैठा है। उदय के चेहरे पर चमकती निर्भयता मानों सीधे गांधी के यहां से चलकर आयी है। राजनीतिषास्त्री का वैष्विक अकादमिक जीवन छोड़कर यह शाकाहारी हिन्दू किसी सांसारिक उपलब्धि के लिए तो ईसाई मछुआरों की बस्ती में जान हथेली पर लिए, जोगी बना नहीं फिर रहा? क्यों ऐषो आराम की जिंदगी उसे रास नहीं आई? इसका उत्तर स्वयं उदय कुमार की उपस्थिति दे रही है। सहसा भ्रमरगीत की पंक्ति याद आ गई- ‘‘उधव मनमाने की बात, दाख छोहारा, छाडि़ अमृतफल, विषकीड़ा विष खात!’’ आंदोलन की शक्ल मंें उदय कुमार उसी विष का पान कर रहे हैं, जिसका पान भ्रमरगीत की गोपियों ने किया, जिसका पान मीरा ने किया। जिसे समझने में उधव का ज्ञान अपर्याप्त है, लेकिन इदिंतकराई के लोग सक्षम हैं। दरअससल, प्रेम, शांति और सुंदरता के लिए बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर को राजनीति मंे साकार करने की चाह उदय को यहां खींच लाई है। मुझे ही नहीं, औरों को भी ऐसा ही लग रहा है।


इदिंतकराई के लोग अपने समय और श्रम के साथ सौ की कमाई में से दस आंदोलन को दे रहे हैं। आंदोलन को तोड़ने के लिए नौ हजार लोगों पर राजद्रोह का आरोप है और 18,000 लोगों पर राज्य के खिलाफ आतंकवादी संलग्नता का। पैसा, धर्म और जाति के नाम पर गांवों को बांटने की साजिष कर रही है सरकार। ऊर्जा के घनघोर संकट का हवाला देकर जनता को आंदोलनकारियों के खिलाफ भड़काया जा रहा है। उन्हें विकासविरोधी बताया जा रहा है। लेकिन कुडनकुलम आंदोलन ने आधुनिक विकास और जीवनषैली के बारे में नए विमर्ष को जन्म दिया है। इनका कहना है कि वे विकासविरोधी, देषद्रोही नहीं है। वे विध्वंसक परमाणु ऊर्जा को ना कह रहे हैं न कि ऊर्जा को।


इस कहानी की विडंबना तो देखिए कि सरकार जिस कुडनकुलम में हर कीमत पर परमाणु ऊर्जा प्रकल्प चालू करने की जिद कर रही है वह पवन ऊर्जा का सबसे समृद्ध इलाका है। कन्याकुमारी से लेकर कुडनकुलम तक - 120 किलोमीटर में आसमान की ओर उन्मुख सैकड़ों पवनचक्कियां स्वागत करती हुई मिलीं। पूरे भारत मंे प्रति वर्ष 17,400 मेगावाट पवन ऊर्जा बनता है। सात हजार मेगावाट पवन ऊर्जा बना, तमिलनाडु अव्वल नंबर पर है। और तमिलनाडु में सर्वाधिक पवन ऊर्जा कुडनकुलम क्षेत्र में बनती है। कुडनकुलम परमाणु संयंत्र के दो रियेक्टरों की क्षमता का दुगना तो अभी ही यहां की पवन चक्कियाँ उत्पादित कर रहे हैं। सभी पवन चक्कियां निजी कंपनियों की हैं। आखिर क्यों सरकार समुद्र की लहरों, पवन जैसे सस्ते, सुरक्षित और अक्षय ऊर्जा के स्रोतों को अपनी नीति में शामिल करने के बदले परमाणु ऊर्जा पर बल दे रही है जबकि कई विकसित देषों ने परमाणु ऊर्जा से पूरी तरह तौबा कर लिया है।     परमाणु संयंत्र के विरोध से शुरू हुआ यह आंदोलन अपनी प्रक्रिया और लक्ष्यों में वैसे ही विराट हो गया जैसे सागर से बूंद-बूंद बटोर बादल पूरे आसमान की विराटता पर छा जाता है। गांव और आजीविका को बचाने का यह संघर्ष अब पूरे देष को परमाणु प्रकल्प रहित बनाने के संकल्प में तब्दील हो चुका है। आंदोलन ने अपनी प्रक्रिया मंे पूरे गांव कोे रूपान्तरित कर दिया है। इदिंतकराई के नवयुवा एल्विन ने बताया कि आंदोलन ने गावंवासियों को राजनीतिक तौर पर सजग और षिक्षित किया है। अब लोग सामूहिक रूप से अखबार का वाचन और देष की राजनीति पर चर्चा करते हैं। पहलेे मर्द शराब पीकर फसाद करते थे लेकिन अब ऐसा नहीं होता। औरतें इस आंदोलन की जान हैं। पहले वे केवल अपने घर के कामों और बीड़ी बनाने तक ही अपने को सीमित रखती थीं लेकिन अब वे इस आंदोलन की अगुआ हैं, अपने अधिकारों को जानती हैं और मर्दों के अत्याचार को ना कहना सीख चुकी हैं। लड़कियों की षिक्षा पर भी ध्यान दिया जाने लगा।

     
आंदोलन जारी है और सरकार का दमनचक्र भी। तीन दिवसीय उत्सव में कुडनकुलम के लागों के साथ देष के बुद्धिजीवी, आंदोलनकारी, युवाषक्ति- सबने सागर को साक्षी मानकर भारत को परमाणु मुक्त देष बनाने का संकल्प लिया है। नया साल मनाने के लिए मौजमस्ती और ग्लैमर को छोड़ अपना समय और पैसा खर्च देष के सुदूर हिस्सों से छात्रों का इदिंतकराई आना- कह रहा है कि देष की युवाषक्ति ने अपना पक्ष चुन लिया है। गैरबराबरी मुक्त समाज के लिए राजनीति करने का पक्ष। कुडनकुलम से लौटते हुए विष्वास और गहराया कि राजनीति मंे चेतना के उठान का सही समय आ गया है। कानों मंे सदा के लिए इदिंतकराई की आवाज बस गई है- ‘‘ गुलामी जंजीर तोड़ेंगे, निर्भयता से जीयेंगे। मालिक विहिन समाज बनाने, नौकरविहीन समाज बनाने, एक बादल ले आए़़़..... इंद्रधनुष को सजाने, एक बादल ले आएं! ’’


http://epaper.jansatta.com/83758/Jansatta.com/20-January-2012#page/16/1


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