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न्यूज क्लिपिंग्स् | इलेक्टोरल बॉन्ड: जो पैसा राजनीतिक दलों के खाते में जा रहा है उसका बोझ करदाता उठा रहा है

इलेक्टोरल बॉन्ड: जो पैसा राजनीतिक दलों के खाते में जा रहा है उसका बोझ करदाता उठा रहा है

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published Published on Jan 30, 2020   modified Modified on Jan 30, 2020
राजनीतिक चंदे की लेनदेन में काम आने वाले बैंकिंग चैनलों, खातों और मुद्रक को मिलाकर समूचे इनफ्रास्ट्रक्चर के रखरखाव और सुरक्षा पर गोपनीय अरबपति या प्राप्तकर्ता राजनीतिक दल एक पैसा अपनी ओर से खर्च नहीं करते. इसके बजाय यह लागत भारत सरकार के एक खाते कंसोलिडेटेड फंड आँफ इंडिया से वसूली जाती है जिसमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों से आने वाला राजस्व जमा होता है. इसके ठीक उलट आम भारतीय नागरिकों द्वारा किए जाने वले बैंकिंग विनिमय पर उससे बैंकिंग शुल्क और कमीशन वसूला जाता है.

भारतीय करदाता के इस बाध्यकारी औदार्य का सबसे बड़ा लाभार्थी अब तक कोर्इ रहा है तो वह है सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी, जिसने योजना के लागू होने के बाद से अब तक सबसे ज्यादा पैसे बनाए हैं. इस माह की शुरुआत में आई रिपोर्टें बताती हैं कि 2018-19 में चंदे से जुटाये गए बीजेपी के कुल फंड का 60 फीसद यानी 1450 करोड़ इलेक्टोरल बॉन्ड से आया था.

बुरी बात यह है कि दानदाता के लिए यह राजनीतिक चंदा करमुक्त होता है, यानी जब कंपनियां और धनकुबेर अपनी पसंद की राजनीतिक पार्टी को चंदा देते हैं तो भारत के राजकोष में कम टैक्स आता है. यह बात किसी और ने नहीं, खुद वित्त मंत्रालय ने 2017 में कही थी जब बीजेपी ने योजना को लाने के लिए अवैध लेकिन कामयाब तरीके से मनी बिल का रास्ता अपनाया था.

न्यूज़लॉन्ड्री द्वारा वित्त मंत्रालय की फाइल नोटिंग, पत्राचार, आंतरिक नोट और मेमो की पड़ताल में सामने आया है कि राजनीतिक चंदे की लेनदेन में सरकारी फंड के इस्तेमाल का निर्णय विवादास्पद इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के आरंभ में ही ले लिया गया था.

कागज़ात बताते हैं कि सरकार शुरू में इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के नियमों में भुगतान के प्रोटोकॉल को सार्वजनिक रखना चाहती थी, लेकिन आखिरकार यह तय हुआ कि इसे सार्वजनिक नहीं किया जाएगा और यह सरकार के आंतरिक रिकॉर्डों और योजना को लागू करने वाले सरकारी क्षेत्र के भारतीय स्टेट बैंक के पास ही सुरक्षित रहेगा.

हाल ही में सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी को देने से एसबीआई ने इनकार कर दिया था जिसमें पूछा गया था कि मार्च 2018 में योजना कें लागू होने से लेकर अब तक कुल 14 राउंड के इलेक्टोरल बॉन्ड विनिमय की देखरेख के एवज में बैंक ने सरकार से कितने पैसे लिए हैं.

कमोडोर लोकेश बत्रा (सेवानिवृत्त) द्वारा लगायी गयी आरटीआई में पता चला था कि मार्च 2018 और मई 2019 के बीच 5832 करोड़ मूल्य के इलेक्टोरल बॉन्डों की दस खेप की बिक्री पर एसबीआई ने वित्त मंत्रालय से 3.24 करोड़ रुपये का शुल्क लिया था. हजार रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री पर बैंक सरकार से साढ़े पांच रुपया शुल्क वसूलता है. इसके अलावा डिजिटल बॉन्ड के हर विनिमय पर बैंक सरकार से अतिरिक्त 12 रुपये लेता है जबकि भौतिक रूप में बॉन्डों की खरीद पर प्रत्येक के हिसाब से 50 रुपये वसूलता है.

इसके अलावा, नासिक में स्थित इंडियन सिक्योरिटी प्रेस (सरकारी कंपनी सिक्योरिटी प्रिंटिंग एंड मिंटिंग कॉरपोरेशन का अंग) प्रत्येक इलेक्टोरल बॉन्ड को छापने के बदले 25 रुपया चार्ज करता है. इसके बदले में प्रेस हर प्रकाशित बॉन्ड को एक गोपनीय संख्या और विशिष्ट सुरक्षा प्रदान करता.

यह धनराशि देखने में भले छोटी जान पड़े लेकिन यह सवाल जरूर पूछे जाने योग्य है कि इन चंदों पर आने वाला खर्च खुद राजनीतिक दल या उनके दानदाता क्यों नहीं भर सकते.

रिजर्व बैंक का रुख

वित्त मंत्रालय ने जनवरी 2017 में पहली बार इलेक्टोरल बॉन्ड पर भारतीय रिजर्व बैंक की राय मांगी. उस वक्त आरबीआई ने इस योजना का भीषण विरोध किया था. (कारण यहां देखें) शिकायती रवैये के बावजूद जब आरबीआई सितंबर 2017 तक योजना के समर्थन में आ गया, तब वित्त मंत्रालय ने 18 सितंबर, 2017 को एक आंतरिक नोट जारी करते हुए सवाल पूछा, “इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने और उसका रखरखाव करने के एवज में बैंकों/आरबीआई को कितना कमीशन भुगतान किया जाए?”
 
पूरी रिपोर्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 

नितिन सेठी,https://www.newslaundry.com/2020/01/30/electoral-bonds-bjp-taxpayers-money-arun-jaitley-narendra-modi


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