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न्यूज क्लिपिंग्स् | उत्तर भारतीयों का भी है भारत -- आर के सिन्हा

उत्तर भारतीयों का भी है भारत -- आर के सिन्हा

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published Published on Oct 11, 2018   modified Modified on Oct 11, 2018
गुजरात में पिछली 28 सितंबर को अहमदाबाद से सौ किमी दूर बनासकांठा के हिम्मतनगर शहर के पास एक दुधमुंही बच्ची के साथ बलात्कार की घटना के बाद वहां के बहुत से हिस्से में बिहारी और उत्तर प्रदेश के मजदूरों के साथ योजनाबद्ध तरीके से मारपीट होती रही. मारपीट से डरे-सहमे अपनी जान बचाने के लिए अब तक पचास हजार से ज्यादा उत्तर भारतीय श्रमिक अपने घरों को लौट गये हैं.

एक सप्ताह के अंदर सैकड़ों सुनियोजित हमले हुए हैं, जिनमें बिहार-यूपी के हजारों श्रमिकों को लात-घूंसे और डंडे से पीटा गया है. यह पलायन बेहद चिंताजनक है. कहा जा रहा है कि कथित बलात्कारी बिहार मूल का है. इसलिए गुजराती लोग सभी उत्तर भारतीय लोगों पर टूट पड़े. क्या ये लोग उस कथित बलात्कारी का समर्थन कर रहे थे?

अगर किसी व्यक्ति ने बलात्कार जैसा जघन्य कृत्य को किया है, तो उसे कानून के मुताबिक दंड मिलना ही चाहिए, पर किसी को भी कानून अपने हाथों में लेने का अधिकार नहीं है. अपने घरों से हजारों मील दूर इन उत्तर भारतीय लोगों पर मेहसाणा, गांधीनगर, साबरकांठा, पाटन, सानंद और अहमदाबाद जिलों में हमले हुए. गुजरात में उत्तर प्रदेश-बिहार से लाखों लोग काम करने गये हुए हैं. उनमें से किसी एक इंसान के राक्षसी कृत्य के कारण सबको सजा देना कहां से वाजिब माना जाए?

बेशक जो इस मामले को किसी क्षेत्र विशेष के लोगों से जोड़कर देख रहे हैं, वे अपनी संकीर्ण मानसिकता का ही परिचय दे रहे हैं. ये देश ‘हम' और ‘तुम' के हिसाब से नहीं चलेगा. अगर इस तरह से कोई चलाने की मंशा रखता है, तो उसे यह देश स्वीकार करनेवाला नहीं है.

बहुत लंबे समय से उत्तर प्रदेश और बिहार के मूल निवासियों पर देश के अलग-अलग भागों में हमले हो रहे हैं. असम के तिनसुकिया इलाके में 2015 में संदिग्ध उल्फा आतंकवादियों के हाथों एक हिंदी-भाषी व्यापारी और उसकी बेटी की हत्या कर दी गयी थी.

दरअसल, जब भी उल्फा को अपनी ताकत दिखानी होती है, वह निर्दोष हिंदी भाषियों (उत्तर प्रदेश-बिहार वाले) को ही निशाना बनाने लगता है. विगत दशकों से पूर्वोत्तर के दो राज्यों क्रमश: असम तथा मणिपुर में हिंदी भाषियों को मारा जा रहा है. ये हिंदी भाषी पूर्वोत्तर में सदियों से बसे हुए हैं और उन क्षेत्रों के विकास में लगे हुए है. उन्हें मारा जाना देश के संघीय ढांचे को ललकराने के समान है. यह स्थिति हर हालत में रुकनी ही चाहिए. इसे न रोका गया, तो देश बिखराव की तरफ बढ़ेगा.

गुजरात में अभी जो हिंसा हो रही है, उसमें असमिया, मणिपुरी, उड़िया और बंगाली भी पिट रहे हैं. साल 2007 में दिल्ली में भी अपने मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान शीला दीक्षित ने एक बार राजधानी दिल्ली की समस्याओं के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार से आकर बसनेवालों को जिम्मेदार ठहरा दिया था. हालांकि शीला यह भूल गयी थीं कि उनका खुद का परिवार भी उत्तर प्रदेश से ही दिल्ली में आकर बसा था.

महाराष्ट्र में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के नेता और उसके कार्यकर्ता उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों के साथ मार-पीट से बाज नहीं आते.

वे इन प्रदेशों के नागरिकों को ‘बाहरी' कहते हैं. तथ्य है कि सिर्फ समावेशी समाज ही आगे बढ़ते हैं. अमेरिका इसका उदाहरण है. इस मामले में पूरा विश्व अमेरिका को अपना आदर्श मानता है. उसकी यह स्थिति इसलिए बनी, क्योंकि वहां पर सबके लिए आगे बढ़ने के समान अवसर हैं. वहां पर दुनिया के कोने-कोने से लोग आकर बसते हैं और अमेरिकी हो जाते हैं.

यदि देश को कानून के रास्ते से नहीं चलाया गया, तो अराजकता की स्थिति पैदा हो जायेगी. यह देश सबका है, यहां के संसाधन हर भारतीय के हैं.

इसलिए किसी के साथ कहीं भी उसकी जाति, धर्म, रंग आदि के आधार पर भेदभाव किया जाना असहनीय है. हिंदी भाषियों के साथ जो हो रहा है, इस मानसिकता पर तुरंत रोक लगाना जरूरी है. यह उसी तरह निंदनीय है, जिस तरह दिल्ली या देश के कुछ भागों में पूर्वोत्तर राज्यों के नागरिकों के साथ भेदभाव होता है.

गुजरात की यह घटना संदेश भी है कि उत्तर प्रदेश और बिहार के कर्णधारों को अब अपने यहां भी रोजगार के पर्याप्त अवसर सृजित करने होंगे.

दुर्भाग्यवश इन दोनों राज्यों में फिलहाल राजनीतिक उद्योग के अलावा कोई उद्योग फल-फूल नहीं रहा है. ये दोनों राज्य विकास की दौड़ से बहुत दूर हैं. यहां के नागरिक भी विकास की ख्वाहिश रखते हैं. मालूम नहीं कि कब इन राज्यों में विकास की बयार बहेगी और यहां के लोगों को छोटे-मोटे काम-धंधों के लिए हजारों मील दूर नहीं जाना पड़ेगा.

ये कोई हाल-फिलहाल से अपने घरों को छोड़कर बाहर नहीं जा रहे हैं. कौन थे गिरमिटिया मजदूर, जिन्हें गोरे गन्ने के खेतों में काम करने के लिए माॅरीशस, फीजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद वगैरह ले गये थे?

गिरमिटिया श्रमिकों का संबंध कमोबेश उत्तर प्रदेश और बिहार से ही था. ये 1830 से लेकर 1920 तक देश से हजारों मील दूर खेतों में काम के लिए गये. इन्होंने घनघोर कष्ट सहे. इन्हें सूरीनाम लेकर जाते वक्त झूठ कहा गया कि इन्हें वहां श्री राम (सूरीनाम) की धरती पर सोना मिलेगा, लेकिन वहां तो इन्हें बंधुआ मजदूर बना दिया गया. ये बात दीगर है कि उन्हीं गिरमिटिया मजदूरों की अगली नस्लें उन देशों की राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बनने लगीं.

एक सप्ताह की हिंसा से गुजरात का हजारों करोड़ का नुकसान हुआ है. जीआइडीसी के अध्यक्ष राजेंद्र शाह के अनुसार, गुजरात में 70 प्रतिशत से ज्यादा श्रमिक उत्तर भारतीय हैं, जिनमें ज्यादातर बिहार-यूपी से ही हैं.

इनमें से 40 प्रतिशत काम पर नहीं आ रहे. इसका सीधा अर्थ है उत्पादकता में 40 प्रतिशत की कमी, यानी हजारों करोड़ का घाटा. इसकी क्षतिपूर्ति करने में बरसों लग जायेंगे.

वहां दंगा भड़काया किसने, यह भी जान लेना जरूरी है. इस शख्स का नाम है अल्पेश ठाकोर, जो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का राष्ट्रीय सचिव और राहुल गांधी का चहेता है. राहुल ने अल्पेश को बिहार में कांग्रेस का प्रभारी बनाया है. अल्पेश खुद को गुजरात का राज ठाकरे बनाना चाहता है.

राहुल गांधी सबकुछ जानते हुए अल्पेश को पार्टी से निकाल क्यों नहीं रहे हैं? क्या राहुल ने अल्पेश को मूक स्वीकृति दे रखी है? क्या इससे उत्तर भारत में उनको कांग्रेस का लाभ होता दिख रहा है? क्या अब अल्पेश बिहार के प्रभारी होकर बिहार में प्रवास कर पायेंगे? राहुल को जवाब देना पड़ेगा. संक्षेप में कहें, तो किसी अपराधी की पहचान उसकी जाति, धर्म, प्रदेश आदि के हिसाब से नहीं होनी चाहिए.


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1213456.html


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