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न्यूज क्लिपिंग्स् | एक साथ चुनाव कराने का अर्थ-- योगेन्द्र यादव

एक साथ चुनाव कराने का अर्थ-- योगेन्द्र यादव

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published Published on Oct 26, 2017   modified Modified on Oct 26, 2017
कुछ साल पहले अमर्त्य सेन ने हमें आर्गुमेंटेटिव इंडियन की उपाधि दी थी. वो हमारी तर्क-वितर्क और दर्शन की परंपरा का सम्मान कर रहे थे. मैं अक्सर सोचता हूँ कि 'आर्गुमेंटेटिव इंडियन' का अनुवाद क्या होगा?

तर्कशील भारतीय? तर्की-वितर्की-कुतर्की भारतीय? या फिर बहसबाज भारतीय? मुझे बहसबाज ज्यादा लगता है. क्योंकि हम हिंदुस्तानियों की प्रवृत्ति है कि जिन मुद्दों पर बहस होनी चाहिए उन पर तो करते नहीं हैं, लेकिन जिन पर समय बर्बाद करने की कोई जरूरत नहीं है, उन पर लंबी बहसों पर उलझे रहते हैं.

इस फिजूल की बहसबाजी का नवीनतम नमूना है है देशभर में एक साथ चुनाव करवाने को लेकर चल रही बहस. मुख्य चुनाव आयुक्त ने न जाने किसके पूछने पर कह दिया है कि चुनाव आयोग देशभर में संसद और विधानसभाओं के चुनाव साथ करवाने को तैयार है. पता नहीं यह प्रस्ताव वे किस कानूनी मर्यादा के तहत दे रहे थे.

पता नहीं क्यों चुनाव आयोग के सामने मुंह बाये खड़े बड़े सवालों को छोड़कर वे क्यों इस सवाल में उलझ गये. बहरहाल प्रस्ताव आ गया है, बहस चल निकली है. पहली नजर में प्रस्ताव जंचता भी है. बताया जा रहा है कि एकसाथ चुनाव कराये जाने से पैसे बचेंगे. सरकारी अमले को बार-बार झंझट में नहीं फंसना पड़ेगा और इससे सरकार के काम में व्यवधान पैदा नहीं होगा.

हर साल छह महीने में देश में कहीं-न-कहीं चुनाव हो जाते हैं. आचार संहिता लागू हो जाती है. सरकार का सारा काम-काज ठप हो जाता है. एक साथ चुनाव होंगे, तो केंद्र सरकार सारा समय किसी-न-किसी राज्य में चुनाव जीतने की चिंता से मुक्त रहेगी. इस बात को लेकर मेरे मन में एक दुविधा है. नेता का चिंताग्रस्त रहना ज्यादा बुरा है, या कि चिंता से मुक्त हो जाना? इतिहास तो यही बताता है कि चुनाव जीतने की चिंता से ग्रस्त नेताओं ने उतने बुरे काम नहीं किये हैं, जितने लोकप्रियता के दबाव से मुक्त नेताओं ने.

पक्ष-विपक्ष के तर्क जो भी हों, मुझे असली हैरानी इस बात से हुई कि इस बहस में सबसे महत्वपूर्ण पहलू अछूता रह गया. सारा देश इस बहस को ऐसे चला रहा है, मानो यह प्रशासनिक सुविधा का मामला है.

बस सिर्फ फायदा-नुकसान देखने की जरूरत है, जिसमें कायदा सुविधा होगी, वह कर लेंगे. इस बहस में शायद ही किसी ने यह याद दिलाया कि यह सवाल हमारे संविधान से भी जुड़ा है. संसद और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने का मतलब होगा देश के संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था को समाप्त कर राष्ट्रपति-व्यवस्था को स्थापित करना.

हमारी संविधानसभा में बहुत विस्तृत चर्चा के बाद यह फैसला हुआ कि हमें अमेरिका जैसी राष्ट्रपति-व्यवस्था की जगह ब्रिटेन जैसी संसदीय-व्यवस्था अपनानी चाहिए. संसदीय लोकतंत्र का मुख्य लक्षण है कि कार्यपालिका के प्रमुख यानी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को सदन में विधायिका का बहुमत प्राप्त हो. इसलिए जिस दिन प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री सदन में बहुमत खो देते हैं, उसी दिन उनकी सरकार को इस्तीफा देना पड़ता है. राष्ट्रपति-प्रणाली में ऐसी अनिवार्यता नहीं है.

हमारे संविधान निर्माताओं ने संसदीय व्यवस्था इसलिए चुना, क्योंकि उसमें विधायिका और कार्यपालिका में टकराहट की गुंजाइश नहीं है और सरकार का काम सुचारू रूप से चलता है. अमेरिका और लैटिन अमेरिका में अपनायी गयी राष्ट्रपति-प्रणाली का बहुत समय संसद और राष्ट्रपति के झगड़े में निकल जाता है.

खैर, जो भी हो, हमारा संविधान संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था पर आधारित है और इसे बिना संविधान संशोधन के बदला नहीं जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के हिसाब से तो इस हिस्से को संशोधन से भी नहीं बदला जा सकता है.

आप सोच रहे होंगे कि चुनाव की तारीख का इस संवैधानिक व्यवस्था से क्या संबंध है? संबंध सीधा है, पर पता नहीं क्यों इस बहस में इस पर तवज्जो नहीं दी गयी है. मान लीजिए कि पूरे देश में लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव 2019 में हो जाएं. तो अब अगला चुनाव 5 साल बाद 2024 में होगा.

अब मान लीजिए कि 2020 में किसी राज्य की सरकार बहुमत खो बैठती है. ऐसे में क्या होगा? अगला चुनाव तो 4 साल दूर है. या तो सरकार बनी रहेगी, लेकिन सरकार के पास बहुमत नहीं है, इसलिए वह न कानून पास करवा सकेगी और न ही बजट ही पास करवा सकेगी. मुख्यमंत्री होंगे, सरकार होगी, सारा तामझाम भी होगा, बस कोई काम नहीं होगा. आप कल्पना कीजिए कि इस संवैधानिक संकट का क्या समाधान है. आप सोचिए की एक साथ चुनाव के इस शोरगुल में इस संवैधानिक पक्ष की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया गया?

एक साथ चुनाव की वकालत करनेवाले इस सवाल का जवाब क्या देते हैं? वे कहते हैं अगर सरकार बीच रास्ते में विश्वास खो बैठती है, तो उसे भंग किया जाये और फिर से चुनाव करवाये जाएं, लेकिन सिर्फ बाकी बचे हुए साल के लिए. इस हिसाब से अगर सरकार 2020 में विश्वास खोती है, तो नयी विधानसभा चार साल के लिए चुनी जायेगी. यानी कभी 5 साल के लिए चुनाव होंगे, कभी 3 साल के लिए, कभी 2 साल के लिए. इस तरह हम छोटे सरदर्द से निबटने के लिए बड़ा सरदर्द मोल लेंगे.

क्या इस बहस के पीछे सिर्फ नासमझी है? संविधान को न पढ़ने की भूल है? केवल प्रशासनिक अतिउत्साह है? इस बहस के पीछे एक गहरा राजनीतिक खेल भी हो सकता है. अगर देशभर में एक साथ चुनाव हो, तो सारा ध्यान लोकसभा के चुनाव पर होगा. एक साथ चुनाव होने से राज्यों के मुद्दे दब जायेंगे.

एक राष्ट्रीय व्यक्तित्व, राष्ट्रव्यापी पार्टी और पूरे देश का एक ही मुद्दा सामने आयेगा. अब जरा सोचिए, इससे किस पार्टी को फायदा होगा? कहीं यह बहस पिछले दरवाजे से देश में राष्ट्रपति-प्रणाली लादने की शरारत तो नहीं? कहीं यह प्रस्ताव क्षेत्रीय और स्थानीय स्वरूप को मिटाने का तो नहीं? कहीं यह खेल एक लंबे समय तक एक ही पार्टी का वर्चस्व बनाये रखने का षड्यंत्र तो नहीं?इस सवाल का जवाब मैं क्यों दूं? हम हिंदुस्तानी हैं, आर्गुमेंटेटिव इंडियन हैं, बहसबाज हैं. अब आप बहस कीजिए और जवाब दीजिए.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1074494.html


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