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न्यूज क्लिपिंग्स् | एक्टिविस्ट की बदलती भूमिका- अरुण तिवारी

एक्टिविस्ट की बदलती भूमिका- अरुण तिवारी

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published Published on Feb 19, 2016   modified Modified on Feb 19, 2016
वर्ष 1990 तक भारत में पंजीकृत गैरसरकारी संगठनों की संख्या मात्र पौने सात लाख थी, जो आज बढ़कर करीब 33 लाख हो गई है। इस बीच उन्हें मिलने वाली विदेशी सहायता में भी अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2002 से 2012 के बीच कुल 97,383.53 करोड़ रुपये की विदेशी सहायता भारतीय गैरसरकारी संगठनों को मिली। जहां गैरसरकारी संगठनों में विदेशी और कॉरपोरेट दानदाताओं की रुचि बढ़ी है, वहीं उनकी भूमिका बदलने में भी।

आर्थिक उदारवाद का एक अध्याय पूर्ण हो चुका है और इसके नफे-नुकसान सामने आने लगे हैं। नई तकनीक के उत्कर्ष ने खरीद-बिक्री के माध्यम व वित्त संचालन के तौर-तरीके बदल दिए हैं। सुधरी अर्थव्यवस्था वाले देशों में सेवा उद्योग प्रमुखता से उभर रहा है। गरीब देशों में मानव संसाधन व प्राकृतिक संसाधन अन्य देशों की तुलना में ज्यादा हैं। इस बदलाव के मद्देनजर परंपरागत शक्तिशाली देशों, कंपनियों व अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने अपनी रणनीति बदलते हुए तय किया कि नई आर्थिक चुनौतियों से उबरने के लिए वे 'एड' के जरिए 'ट्रेड' बढ़ाएंगे।

इसी के तहत उन्होंने अपने इस गुट में स्वयंसेवी संगठनों को भी शामिल करना शुरू किया। उन्होंने तय किया कि स्वयंसेवी संगठनों को वे दो नई भूमिकाओं में लाएंगे। रणनीतिक व बौद्धिक संगठनों को सीधे-सीधे गर्वनेंस में आने को प्रेरित करेंगे। बड़े जनाधार वाले गंवई संगठनों को 'बाजार को प्रभावी बनाने के संचालक' की भूमिका के लिए तैयार करेंगे। युवा बनाम प्रौढ़ की आबादी को आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक घटकों में बांटेंगे। धार्मिक-अध्यात्मिक समुदायों को भी इस काम में जोड़ा जाना तय हुआ। वर्ल्ड इकोनॉमी फोरम की रिपोर्ट इसकी पुष्टि करती है और 'कॉरपोरेट सोशल रिसपॉन्सिब्लिटी' का मौजूदा नियम भी। इसी मंशा से उन्होंने यह भी तय किया कि अपने बाजार देशों में पहले कुशासन के मुद्दे का उभरा जाए, क्योंकि शासन-प्रशासन के फेल होने पर ही समाधान के रूप में निजीकरण को पेश किया जा सकता है। कुशासन का मुद्दा स्थापित होने के बाद सुशासन की मांग करते हुए कहा जाए कि सुशासन सुनिश्चित होने से गरीबी स्वतः कम हो जाएगी। अनुकूल संगठनों व व्यक्तियों को चिह्नित कर नई भूमिका में लाया जाए। सयुंक्त राष्ट्र के कई कार्यक्रम संचालक ऐसे संगठनों व लोगों की आर्थिक क्षमता व उनकी बहुआयामी सामर्थ्य बढ़ाने के काम में ही लगे हुए हैं। वे चाहते हैं कि शासन में पारदर्शिता व जनसंवाद जैसे मुद्दों के जरिये ऐसे संगठनों की विश्वसनीयता बढ़ाई जाए।

चाय, ऑटोमोबाइल, कृषि, बैंक व बीमा उत्पादों की बिक्री के लिए सामाजिक संगठनों को मिलाकर काम करने के टाटा कंपनी के 'चलो गांव की ओर' मॉडल पर गौर कीजिए। जो स्वयंसेवी संगठन पहले परोक्ष रूप से पोषण, स्वास्थ्य, स्वच्छता, हरित क्रांति आदि का नारा देकर उत्पादों का बाजार बढ़ाने में सहायक हो रहे थे, वे अब सीधे-सीधे बाजार में उत्पादों की बिक्री कर रहे हैं। यह नई भूमिका है। दुखद है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद सामाजिक संगठनों की संख्या जितनी तेजी से बढ़ी है, कार्यकर्ता निर्माण का कार्य उतनी तेजी से घटा है। पिछले ढाई दशक में ऐसे संगठनों की संख्या काफी बढ़ी है, जिनके लिए उनका काम बजट आधारित एक परियोजना से अधिक कुछ नहीं होता। एक्टिविस्टों की नई भूमिका देश के लिए कितनी हितकर होगी, यह स्वयं उन्हें ही तय करना चाहिए।


http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/changing-roll-of-activist-hindi/


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