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न्यूज क्लिपिंग्स् | एनजीओ की नकेल कसना जरूरी - नंटू बनर्जी

एनजीओ की नकेल कसना जरूरी - नंटू बनर्जी

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published Published on May 1, 2015   modified Modified on May 1, 2015
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रजिस्ट्रेशन एक्ट 2010 के तहत कोई 9000 गैर सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) के पंजीयन रद्द कर दिए हैं। अब इनमें से कोई भी एनजीओ विदेशी अनुदान हासिल नहीं कर सकेगा। इससे अमेरिका नाहक ही नाराज हो गया है। अगर भारत के गृह मंत्रालय को लगता है कि विदेशी पूंजी से पोषित किन्हीं एनजीओ की गतिविधियों के चलते देश की सामाजिक स्थिति और आर्थिक प्रगति प्रभावित हो रही है और वह उन पर कार्रवाई करता है तो इससे अमेरिका को कोई सरोकार नहीं होना चाहिए। यही कारण है कि ग्रीनपीस इंडिया का पंजीयन रद्द करने और फोर्ड फाउंडेशन पर अंकुश लगाने की तैयारी करने के भारत सरकार के निर्णय पर अमेरिका की नाराजी गैरजायज और गैरजरूरी है। अमेरिकी गृह मंत्रालय का यह कहना कि भारत सरकार द्वारा सिविल सोसायटी संस्थाओं के लिए पैदा की जाने वाली मुश्किलों से वह चिंतित है, भारत के घरेलू मामलों में अमेरिका के अनावश्यक हस्तक्षेप की तरह ही देखा जाएगा।

पिछले 20 सालों में विदेशी संस्थाओं ने भारत में स्थित उनके तथाकथित एनजीओ में 40 अरब डॉलर से भी अधिक धन लगाया है। वर्ष 2008-09 में जैसे ही यूपीए सरकार ने अपने कार्यकाल के दूसरे दौर में प्रवेश किया और देश की नब्ज पर उसका नियंत्रण कमजोर पड़ने लगा, भारतीय एनजीओ में विदेशी संस्थाओं द्वारा लगाए जाने वाले पैसे में खासी तेजी देखी गई। 10 हजार करोड़ रुपए प्रतिवर्ष के औसत से इन एनजीओ को पैसा दिया जाने लगा, जिनका मकसद बुनियादी ढांचे की बड़ी परियोजनाओं की राह में अड़ंगा डालना और विभिन्न् धार्मिक गतिविधियों को बढ़ावा देना था। वर्ष 2013-14 में 11 हजार करोड़ से अधिक की राशि फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रजिस्ट्रेशन एक्ट (एफसीआरए) के तहत भारतीय एनजीओ को मुहैया कराई गई। भारत में ऐसे लगभग 41 हजार पंजीकृत एनजीओ हैं, जिन्हें विदेशों से मदद प्राप्त होती है। इसके अलावा लगभग 22 हजार गैरपंजीकृत एनजीओ भी हैं, जिनमें से अधिकांश की पहुंच विदेशी फंड तक है। एफसीआरए के तहत भारत सरकार को पूरा अधिकार है कि वह यह सुनिश्चित करे कि विदेशी पूंजी से पोषित ये घरेलू एनजीओ देश के हित में काम करें।

वर्ष 1993 में जब भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को भूमंडलीकृत मुक्त बाजार व्यवस्था के लिए खोल दिया था, तब देश में विदेशी पूंजी से पोषित पंजीकृत एनजीओ की संख्या 15 हजार के आसपास थी। इन्हें अधिकृत रूप से 1900 करोड़ रुपए का सालाना अनुदान प्राप्त होता था। देश के विभिन्न् हिस्सों में सक्रिय अनेक एनजीओ धार्मिक संस्थाओं से संबद्ध हैं, जिनके बारे में बताया जाता है कि उन्हें अनधिकृत रूप से दुनिया के कुछ देशों से बड़े पैमाने पर आर्थिक मदद मुहैया कराई जाती है। दुर्भाग्यवश अभी तक सरकारों ने इस मामले को संजीदगी से लेते हुए इस संबंध में जरूरी कार्रवाई नहीं की थी। मार्च में जरूर सरकार ने 69 एनजीओ को उनकी अनुचित गतिविधियों का हवाला देते हुए प्रतिबंधित कर दिया था। इनमें से अधिकांश दक्षिण भारत में सक्रिय थे। लेकिन अब कोई 9000 एनजीओ का पंजीयन निरस्त कर सरकार ने इस दिशा में पहली बड़ी कार्रवाई की है। अलबत्ता देश में पिछले एक दशक में जिस तरह से विदेशी पूंजी से पोषित एनजीओ कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं, उसके मद्देनजर तो यह संख्या भी कम ही मानी जा सकती है।

भारत में ऐसे अनेक एनजीओ और गैर-लाभकारी निजी संस्थाएं हैं, जिन्हें सरकार और समाज का हमेशा ही खासा समर्थन प्राप्त होता आया है। यही कारण है कि ग्रीनपीस और फोर्ड के संबंध में सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों पर अमेरिका के नाराज होने की कोई तुक नजर नहीं आती। देश में चाहे जिस राजनीतिक विचारधारा की सरकार रही हो, इन एनजीओ का हमेशा ही राजनेताओं, मीडिया, बुद्धिजीवियों, विद्यार्थियों और समाज के निचले तबके द्वारा सहयोग किया गया है। वास्तव में इनमें से अनेक ऐसे हैं, खासतौर पर अमेरिका के ही बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन और रॉकफेलर फाउंडेशन द्वारा वित्तपोषित एनजीओ, जो कि समाज और गरीबों के हित में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। मिसाल के तौर पर गेट्स फाउंडेशन अपने अनेक एनजीओ की मदद से एड्स की बीमारी का सामना करने के लिए काम कर रहा है। बाल-अधिकारों के संरक्षण और लोकस्वास्थ्य की स्थिति में सुधार की दिशा में भी उसके द्वारा उल्लेखनीय कार्य किए जा रहे हैं।

गौर किया जाना चाहिए कि एनडीए सरकार भी गेट्स फाउंडेशन का भरपूर सहयोग कर रही है। गत 15 अप्रैल को ही कोई एक सदी पुराने रॉकफेलर फाउंडेशन ने भी 'स्मार्ट पॉवर फॉर रूरल डेवलपमेंट" प्रोजेक्ट लॉन्च किया, जिसका मकसद था आगामी तीन वर्षों में उत्तर प्रदेश और बिहार के एक हजार से भी अधिक अलग-थलग बसे गांवों तक बिजली पहुंचाना। इन गांवों में दस लाख से भी अधिक लोग रहते हैं। रॉकफेलर फाउंडेशन के इस अभियान को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित उनके ऊर्जा और ग्रामीण विकास मंत्रियों और उत्तर प्रदेश और बिहार के मुख्यमंत्रियों द्वारा पूर्ण सहयोग प्रदान करने का आश्वासन दिया गया है। फाउंडेशन की अध्यक्ष जुडिथ रोडिन का कहना है कि वे इस परियोजना को शुरू करते समय बहुत रोमांचित थीं। परियोजना में फाउंडेशन द्वारा 7.5 करोड़ डॉलर की फंडिंग की जा रही है। निश्चित ही, देश के गरीबों-वंचितों और एनजीओ को इस तरह की फंडिंग की सख्त जरूरत है, क्योंकि विकास की धारा से कटे गांवों में बिजली पहुंचने का मतलब होगा, उन्हें देश की मुख्यधारा से जोड़ना और गांवों में छोटे स्तरों पर विभिन्न उद्यमों को प्रोत्साहित करते हुए ग्रामीणों की गरीबी दूर करने का प्रयास करना।

लेकिन काश कि सभी एनजीओ का मकसद नेक मंशा के साथ काम करना होता। दुर्भाग्य की बात है कि भारत में संचालित होने वाले अनेक एनजीओ अपने विदेशी फंड प्रदाता की एक शाखा के रूप में सक्रिय रहते हैं और भारत में उनके इरादों को अंजाम देने का काम करते हैं। इनमें से अनेक एनजीओ तो ऐसे हैं, जो सालों तक सरकार को अपने आय-व्यय का ब्योरा देने और रिटर्न भरने की भी जेहमत नहीं उठाते। देश के लोकतांत्रिक मूल्यों और धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को क्षति पहुंचाने की कोशिश करने वाले ऐसे एनजीओ को भला कौन-सी सरकार और कौन-सा समाज सक्रिय रहने की अनुमति दे सकते हैं? इस तरह के एनजीओ की पहचान करके जितनी जल्दी उनके पंजीयन निरस्त किए जाएं, उतना ही देश और सिविल सोसायटी के भले में होगा। इस संबंध में सरकार द्वारा उठाया गया ताजा कदम यकीनन स्वागतयोग्य है।

(लेखक बिजनेस स्टैंडर्ड के कॉर्पोरेट एडिटर रहे हैं। ये उनके निजी विचार हैं

 


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