Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | ऐसा कर्ज तो किसान को डुबोएगा ही-- सोमपाल शास्त्री

ऐसा कर्ज तो किसान को डुबोएगा ही-- सोमपाल शास्त्री

Share this article Share this article
published Published on Dec 5, 2018   modified Modified on Dec 5, 2018
शुक्रवार को अपनी मांगों के साथ देश भर के किसान एक बार फिर दिल्ली की सड़कें नापते रहे। बीते कुछ महीनों में यह तीसरा मौका था, जब वे अपनी खेती-किसानी छोड़कर अपने हक के लिए देश की राजधानी में थे। कर्ज माफी और फसलों के उचित दाम के अलावा उनकी एक प्रमुख मांग किसानों के मसले पर संसद का विशेष सत्र बुलाना भी है। इसके लिए उन्होंने देश की सबसे बड़ी पंचायत तक पैदल मार्च भी किया। मगर क्या संसद का विशेष सत्र वाकई अन्नदाताओं की मुश्किलें दूर कर पाएगा? आखिर कृषि से जुड़ा ऐसा कौन-सा मुद्दा है, जिससे अभी तक हमारी संसद अनजान है? और जब मुद्दे पुराने होंगे, तो हमारे नुमाइंदे भी संसद में शब्दों की नूरा-कुश्ती करते ही दिखेंगे।


एक संस्था के तौर पर संसद में बहुमत के आधार पर सारे फैसले होते हैं। आधार जैसे कई विधेयक हैं, जिन्हें ‘मनी बिल' के रूप में संसद से पारित करा लिया गया, लेकिन किसानों की नहीं सुनी गई। किसानों की समस्या आज की नहीं है। यह स्थाई समस्या है, जिसका अब तक फौरी इलाज ही हुआ है। कोई दीर्घकालिक नीति नहीं बनाई गई। भूमि अधिग्रहण के ब्रिटिश कालीन कानून में 2013 में होने वाले संशोधन पर बहस को याद कीजिए। तब विपक्षी नेताओं का यह कहना था कि ‘सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन' के प्रावधान जब तक नहीं किए जाएंगे, हम इसे पारित नहीं होने देंगे, लेकिन जब वे खुद सत्ता में आए, तो इन्हीं मुद्दों से कन्नी काटने लगे। कई मामलों में कानून के प्रावधान कमजोर किए गए। इसका नुकसान भी किसानों को हुआ है।


कुछ दिक्कतें किसानों की तरफ से भी हैं। उनके कुछ सवालों का कोई औचित्य नहीं है। उन्हें समझना होगा कि अव्यावहारिक मांगों से आंदोलन ही कमजोर होता है। असल में, कर्ज-माफी की भी एक सीमा है। करदाताओं के पैसे से ही ऐसा किया जा सकता है। केंद्र सरकार के पास एक अन्य विकल्प रिजर्व बैंक को अतिरिक्त करेंसी छापने का निर्देश देना है। लेकिन इस कदम के नतीजे कहीं ज्यादा भयावह होंगे। लिहाजा किसानों की तरफ से ऐसी मांगें ही आनी चाहिए, जो व्यावहारिक हों और जिनको पूरा करना सत्ता-प्रतिष्ठान के लिए संभव हो।

इस ‘किसान मुक्ति मार्च' में देश के 206 किसान व खेतिहर मजदूर संगठनों ने हिस्सा लिया। इतने सारे किसान संगठनों का होना चौंकाता है। यानी हर राज्य और केंद्र शासित क्षेत्र से औसतन सात संगठन दिल्ली पहुंचे। तमाम संगठनों के अपने-अपने मुद्दे और हित हैं। जाहिर है, किसान अपने मुद्दों पर ही बंटे हुए हैं। अच्छा होगा कि वे पहले खुद एकमत हों, उनका एक संगठन बने। मांग-पत्र में व्यावहारिक सवाल शामिल किए जाएं और तब हुक्मरानों से अपने हित की बात की जाए।


देश में आज भी किसानों का बहुमत है। 52 फीसदी रोजगार खेती-किसानी में है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था उन्हीं पर टिकी है। लेकिन जब माताधिकार के इस्तेमाल की बारी आती है, तो किसान अपनी जरूरतों पर नहीं, जाति-धर्म जैसे गैर-जरूरी मसलों पर वोट डालते हैं। जाहिर है, जब प्रतिनिधियों का चुनाव ही मुद्दों पर नहीं होगा, तो फिर संसद में मुद्दों पर बहस की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है? साल 2008 में भी यूपीए सरकार ने देश भर के किसानों का कृषि-कर्ज माफ किया था। तब किसानों के लगभग 60 हजार करोड़ रुपये के कर्ज माफ किए गए थे। साल 2009 के आम चुनाव में इसका फायदा भी कांग्रेस को मिला। मगर सरकारी आंकड़े यह भी बताते हैं कि 1995 से 2015 के बीच तीन लाख से अधिक किसानों ने अपना जीवन खत्म किया है। वे फिर से कर्ज में डूब गए। इसीलिए, दिल्ली आए तमाम किसानों को इस सोच के साथ वापस लौटना चाहिए कि जो दल उनके मुद्दों पर जमीनी काम करेगा, वे चुनाव में उसी का साथ देंगे। अगर ऐसा हुआ, तो यकीन मानिए, चुनाव सुधार भी खुद-ब-खुद हो जाएगा। आज ऐसे तमाम उपाय हैं, जिनकी मदद से संसद सत्र के बिना भी किसानों के हित में काम किए जा सकते हैं।


आज जरूरत ऐसा माहौल बनाने की है कि किसानों को अव्वल तो कर्ज लेने की जरूरत ही न पड़े, और अगर लें, तो पूंजीगत कर्ज लें। ऐसा कर्ज, जो उनकी अर्जन क्षमता बढ़ाए। इसे दीर्घकालीन ऋण कहा जाता है। इसे सस्ता होना चाहिए। लेकिन हमारे यहां उल्टी रवायत चल रही है। इसी वजह से किसान बार-बार कर्ज के जाल में फंस रहा है। कुछ किसान तो सिर्फ कर्ज-माफी की सोचते हैं। उन्हें इसका लाभ मिलता भी है, क्योंकि चुनाव के समय उदार भाव से कर्ज माफ होते हैं। पहले कर्ज-माफी केंद्र सरकार ही किया करती थी, लेकिन अब राज्य सरकारें भी इस ओर बढ़ चली हैं। इस कारण समय पर कर्ज चुकाने वाले ईमानदार किसान ठगे रह जाते हैं। राज्य का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह उन लोगों को प्रोत्साहित करे, जो वैधानिक काम करते हों। मगर अब तो जिन किसानों ने जान-बूझकर कर्ज नहीं चुकाया, वही फायदे में रहते हैं। यह परंपरा बंद होनी चाहिए।


खेती-किसानी की जब कभी चर्चा होती है, तो स्वामीनाथन आयोग की दुहाई दी जाती है। यह रिपोर्ट अपने आप में पूर्ण नहीं है। मगर ‘सी2' को लागत मूल्य के तौर पर लेना एक अच्छी सिफारिश है। इस पर अमल होना चाहिए। इसका अर्थ है कि कुल नकद लागत और किसान के पारिवारिक पारिश्रमिक के अलावा खेत की जमीन का किराया व कुल कृषि पूंजी पर लगने वाला ब्याज भी किसानों की कुल लागत में शामिल किया जाए, और उसी के हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी घोषित हो। अभी एमएसपी घोषित करके भी उस मूल्य पर खरीदारी नहीं होती। गोदामों की कमी एक अलग ही बहाना है। लेकिन सरकार ने यदि एमएसपी घोषित किया है, तो बाजार में जिन्स के दाम गिरने पर उसे उसकी खरीदारी करनी ही चाहिए। जरूरत इसके लिए वैधानिक व्यवस्था बनाने की है। किसानों को इसका भी पर्याप्त फायदा मिलेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/story-opinion-hindustan-column-on-1-december-2292045.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close