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न्यूज क्लिपिंग्स् | ऐसा भविष्य जो हम नहीं चाहते- वंदना शिवा

ऐसा भविष्य जो हम नहीं चाहते- वंदना शिवा

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published Published on Jul 11, 2012   modified Modified on Jul 11, 2012
राजील का शहर रियो डे जेनेरियो यू टर्न के लिए मशहूर है। रियो +20 सम्मेलन ने भी इसी का अनुकरण किया है, जो धरती के जीवन को बचाए रखने की मानवीय जिम्मेदारी से पलटने का सबसे बड़ा उदाहरण था। बीस वर्ष पहले पृथ्वी सम्मेलन में जैव-विविधता के संरक्षण एवं विनाशकारी जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए कानूनी रूप से एक बाध्यकारी समझौते पर दस्तखत किए गए थे। जैव-विविधता पर सम्मेलन और जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के ढांचागत समझौते ने सरकारों को हमारे समय के दो सबसे बड़े पारिस्थितिकी संकट से निपटने के लिए घरेलू स्तर पर कानून और नीतियां बनाने के लिए प्रेरित किया।

रियो +20 सम्मेलन का एजेंडा तो यह होना चाहिए था कि रियो संधि का क्रियान्वयन अधूरा क्यों रह गया। इसमें पारिस्थितिकी संकट के गहराने से संबंधित रिपोर्ट पेश करने के साथ ही कानूनी रूप से बाध्यकारी कदम उठाने की जरूरत थी, ताकि यह संकट खतरनाक स्तर पर न पहुंच जाए। पर सम्मेलन में पूरी शक्ति इस पर लगा दी गई कि किसी भी तरह की प्रतिबद्धता से बचा जाए। यह सम्मेलन अपनी उपलब्धियों के बजाय इस गंभीर संकट पर ठोस कदम उठाने में नाकाम रहने की वजह से याद किया जाएगा। इसे 'हरित अर्थव्यवस्था' के नाम पर विफल अर्थव्यवस्था वाले राष्ट्रों को खैरात बांटने के लिए याद किया जाएगा। क्या विडंबना है, प्रकृति को पण्य वस्तु में बदलने और उसका वित्तीयकरण करने को हरित अर्थव्यवस्था का नाम दिया गया है। वर्ष 2008 में वॉल स्ट्रीट में ध्वस्त होने और करदाताओं के अरबों डॉलर के खैरात से नया जीवन पाने वाली और अब भी मितव्ययिता के जरिये लोगों का जीवन निचोड़कर खैरात हासिल करने वाली वित्तीय व्यवस्था खुद को धरती के उद्धारक के रूप में पेश कर रही है।

हरित अर्थव्यवस्था के जरिये वस्तुतः धरती के संसाधनों और जीव-जगत को प्रौद्योगिकीकरण, वित्तीयकरण, निजीकरण और पण्य वस्तु में बदलने की एक सुनियोजित कोशिश है। यह धरती पर कब्जा कर जीवन को खत्म करने वाली दुनिया और प्रकृति के साथ सौहार्द स्थापित करने वाली एवं धरती माता के अधिकारों को मान्यता देने वाली दुनिया के बीच की आखिरी लड़ाई है। धरती माता के अधिकारों के सार्वभौमिक घोषणापत्र पर एक लाख भारतीयों का हस्ताक्षर करवा कर मैंने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून को सौंपा था।

यह हमारे आंदोलनों की दृढ़ता और शक्ति का ही परिचायक है कि जब हरित अर्थव्यवस्था संबंधी टिप्पणी को अंतिम रूप दिया जा रहा था, तब उसमें धरती माता और प्रकृति के अधिकारों से संबंधित एक अनुच्छेद भी रखा गया। अनुच्छेद 39 कहता है, हम मानते हैं कि धरती और इसकी पारिस्थितिकी हमारा घर है और कई देशों और क्षेत्रों में धरती को मां कहा जाता है, और हम इस बात को भी ध्यान में रखें कि कई देशों का मानना है कि सतत विकास को बढ़ावा देकर ही प्रकृति के अधिकारों की रक्षा की जा सकती है। हम मानते हैं कि वर्तमान और भावी पीढ़ी की आर्थिक, सामाजिक एवं पर्यावरणीय जरूरतों में संतुलन स्थापित करने के लिए जरूरी है कि हम प्रकृति के साथ सौहार्दपूर्ण व्यवहार करें।

यह वास्तव में प्रभुत्व के संघर्ष का उदाहरण है, जो रियो +20 सम्मेलन पर छाया रहा। एक तरफ हरित अर्थव्यवस्था की वकालत करने वाले लालची लोग थे, वहीं दूसरी तरफ धरती माता के अधिकारों की बात करने वाले लोग। जब रियो + 20 सम्मेलन का उद्देश्य पीछे चला गया, तब कुछ देशों की सरकारें एक नया प्रतिमान और नजरिये के साथ आगे आईं। इक्वाडोर पहला ऐसा राष्ट्र है, जिसने अपने संविधान में प्रकृति के अधिकारों को शामिल किया है। रियो +20 सम्मेलन के दौरान इक्वाडोर की सरकार ने मुझे यासुनी पहल की घोषणा के वक्त राष्ट्रपति के साथ रहने के लिए आमंत्रित किया। दरअसल वहां की सरकार ने अमेजन के जंगल और स्थानीय समुदायों को बचाने के लिए यासुनी नेशनल पार्क के पास कच्चे तेल का अंधाधुंध दोहन न करने का फैसला किया है

दूसरा उदाहरण हमारे छोटे-से पड़ोसी देश भूटान ने पेश किया। उसने अपनी प्रगति निर्धारित करने के लिए सकल घरेलू उत्पाद के बजाय सकल राष्ट्रीय खुशहाली का मानदंड अपनाया है। वहां की सरकार ने जैविक खेती को मान्यता दी है। जैसा कि भूटान के प्रधानमंत्री ने सम्मेलन में बताया, भूटान की शाही सरकार जैविक खेती पर वापस लौटने के साझा स्वप्न को साकार करने के लिए चलने वाले वैश्विक आंदोलन को लगातार बढ़ावा देगी, जिससे फसल और धरती, दोनों टिकाऊ बनी रहे। ज्यादातर देशों की सरकारें रियो +20 सम्मेलन के परिणाम से निराश थीं। आंदोलनकारियों ने नाराज होकर विरोध-प्रदर्शन भी किया। एक लाख से ज्यादा लोगों ने यह कहते हुए मार्च किया कि यह वह भविष्य कतई नहीं है, जो हम चाहते हैं। उल्लेखनीय है कि रियो +20 सम्मेलन का शीर्षक था- भविष्य, जो हम चाहते हैं। रियो +20 सम्मेलन का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ। हमारी सामूहिक इच्छाशक्ति और कार्रवाई ही तय करेगी कि पानी की अंतिम बूंद, घास की आखिरी पत्ती, जमीन का आखिरी टुकड़ा और अंतिम बीज का निजीकरण करने में कॉरपोरेट जगत सफल होंगे या धरती पर मानव जीवन समेत इसकी समुद्ध विविधता को बचाने में हम सक्षम हो सकेंगे।

http://www.amarujala.com/Vichaar/Columnist/vandna-shiva/We-do-not-want-such-future-43-521.html


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