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न्यूज क्लिपिंग्स् | कर्नाटक के विनाश की नई राह-- रामचंद्र गुहा

कर्नाटक के विनाश की नई राह-- रामचंद्र गुहा

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published Published on Jul 10, 2018   modified Modified on Jul 10, 2018
यह 1989 की बात है जब मैं शिवराम कारंथ से उनके दक्षिण कर्नाटक स्थित गांव सालिग्राम में मिला था। आधुनिक कन्नड़ उपन्यास के जनक, यक्षगान जैसे प्राचीन नृत्य नाटक का पुनर्पाठ प्रस्तुत करने वाले, विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने वाले शिवराम कारंथ उन दिनों अपने प्यारे पश्चिमी घाटों को विनाश से बचाने की मुहिम में जुटे थे। 80 साल की उम्र में भी वे खासे सक्रिय रहकर साथी कन्नड़डिगाओं को अपनी प्रचुर प्राकृतिक संपदा के प्रति सचेत कर रहे थे।

 

बाद में मैंने भी कई बार अप्रतिम हरियाली वाले मालनाद के इन घाटों को करीब से देखा, जो कोंकन तटरेखा के पश्चिम में स्थित है। शिवराम कारंथ की ही प्रेरणा से विज्ञान की पढ़ाई का जनोन्मुख इस्तेमाल करने वाले पारिस्थितिकी विज्ञानी माधव गाडगिल के साथ ने इन यात्राओं को और महत्वपूर्ण बना दिया। गाडगिल ने अपना अधिकांश जीवन घाटों के इर्द-गिर्द बसे लोगों की आजीविका सुरक्षा और पर्यावरणीय स्थिरता के प्रति समर्पित कर दिया था। हाल ही में शिवमोग्गा जिले के सागर तालुका में चल रहे अद्भुत सांस्कृतिक रचनात्मकता वाले केंद्र निनासम के भ्रमण के दौरान अतीत का बहुत कुछ फिर से जीवंत हो गया। निनासम सागर के हेगोडू गांव में चल रहा है।

कर्नाटक के तमाम इलाके वास्तुकला और संस्कृति के मामले में समृद्ध हैं, लेकिन प्राकृतिक सौंदर्य के लिए तो पश्चिमी इलाका हमेशा से अप्रतिम रहा है। आगे कितने दिन रह सकेगा, कहना मुश्किल है। मैं दशकों से अगर मालनाद के घाटों की महिमा, इनके सौंदर्य का साक्षी रहा हूं, तो इंसानी फितरत से इसकी बर्बादी भी देख रहा हूं। इधर तो विनाश जैसे सामने ही दिख रहा है। चित्रदुर्गा से धर्मास्तल फोरलेन के नाम पर कम से कम 50 हजार पेड़ कटने जा रहे हैं तो तीन और राजमार्गों की तैयारी है जो लाखों पेड़ों के साथ ही तमाम पहाड़ियों को नष्ट करने का जरिया बनकर भारी पर्यावरणीय नुकसान करेगा।

इन परियोजनाओं पर सवाल उठने लगे हैं। लोग मानते हैं कि सड़कें और राजमार्ग जरूरी हैं, लेकिन इसके लिए रेलमार्ग जैसे अन्य विकल्पों पर भी विचार होना चाहिए? बेंगलुरू को पानी देने के नाम पर भी कई विनाशकारी योजनाएं सामने हैं। येतिनहोल जैसी परियोजना तो नेत्रावदी नदी का प्रवाह ही बदलकर रख देगी। इसके प्रोमोटर पश्चिमी घाटों से विशाल पाइपों के जरिए बेंगलूरू तक पानी लाने का मंसूबा भी पाले हैं। यह पूरी प्रक्रिया किस तरह लाखों पेड़ों की बलि लेंगी,सहज कल्पना की जा सकती है।

 

येतिनहोल परियोजना तो खैर फिलहाल वैज्ञानिक जांच के दायरे में है, लेकिन राज्य की नई जेडीएस-कांग्रेस सरकार एक अजीबोगरीब योजना का ताना-बाना बुन रही है, कि बेंगलूरू के लिए पश्चिमी नदी शरवथी का पानी लाएगी। स्वाभाविक है यह पानी लिंगानमाकी जलाशय से आएगा, जो राजधानी से पूरे 425 किलोमीटर दूर है और मूल रूप से बिजली परियोजना के तौर पर जाना जाता है। यह बेंगलूरू के लिए कितना कारगर होगा, बाद की बात है लेकिन इतना तो तय है कि यह मालनाद के लोगों पर भारी पड़ेगा, क्योंकि ऐसा करने से जलाशय में पानी कम होगा जिसका असर लिंगानमाकी के बिजली उत्पादन पर पड़ेगा।

 

अकारण नहीं है कि ऐसी बीमार कल्पनाएं प्रकृतिप्रेमियों को भी डरा रही हैं। वे इसे वन्य जीवन के लिए बड़ा खतरा मान रहे हैं, क्योंकि इस तरह वनों की अंधाधुंध कटाई से तो बाघ, हाथी, जंगली भैंसे और कोबरा जैसे पहले से ही लुप्तप्राय प्रजातियां और बड़े संकट में घिर जाएंगी। सामाजिक न्याय के पक्षधरों को भी समझना चाहिए कि किस तरह बेंगलूरू को एक और सिंगापुर बनाने की यह खामख्याली लाखों किसानों, मछुआरों, चरवाहों और कारीगरों-हस्तशिल्पियों की आजीविका खतरे में डाल देगी और तब शायद उनके करने के लिए बहुत कुछ शेष नहीं रहेगा।

कुछ सवाल नागरिकों को भी सरकार से करने चाहिए। पूछना चाहिए कि बेंगलूरू को पानी के लिए शहर की लुप्तप्राय झीलें क्यों नहीं पुनर्जीवित की जा सकती हैं? उन विशाल बंगलों और दफ्तरों से पानी के लिए ज्यादा शुल्क क्यों न वसूला जाना चाहिए, जो अपनी हरियाली और धुलाई के नाम रोज अथाह पानी बहाते हैं? ऐसा क्यों है कि ग्रामीण आबादी की पानी की जरूरतें कभी प्राथमिकता में नहीं रहीं?

पर्यावरण स्थिरता और सुसंगत आर्थिक विकास के लिए कर्नाटक के पास अकूत प्राकृतिक और बौद्धिक संपदा है। इसके पास भारतीय विज्ञान संस्थान जैसा देश का बेहतरीन विश्वविद्यालय है, तो देश में पर्यावरण अनुसंधान के दो सबसे अच्छे संस्थान- पारिस्थितिक विज्ञान केंद्र और अशोका पारिस्थितिकी व पर्यावरण ट्रस्ट यहीं हैं। शहरी अध्ययन के लिए ख्यात देश का एकमात्र उन्नत केंद्र भारतीय मानव संसाधन संस्थान भी यहीं है।

 

सच है कि पानी, बिजली, ऊर्जा, परिवहन और शहरी विकास संबंधी सतत नीतियां बनाने में वैज्ञानिकों-विशेषज्ञों की बड़ी भूमिका है लेकिन सरकार तो इनकी सुनने से रही। भाजपा हो या कांग्रेस-जेडीएस, कर्नाटक के किसी राजनेता का ऐसे सोच से कभी कोई सरोकार नहीं रहा, भले ही इतने काबिल लोग उनके अपने घर में ही क्यों न हों।

 

अभी तमाम राष्ट्रीय चैनल दिल्ली में पेड़ों की संभावित कटाई पर रूदन करने दिखे थे। क्या कर्नाटक में उन लाखों पेड़ों की कटाई भी इन खबरिया चैनलों का ध्यान उसी तरह आकर्षित करेगी, जो कथित विकास के नाम पर यहां तयशुदा दिख रहा है? मैं यह सवाल इसलिए नहीं पूछ रहा हूं कि यह मेरे राज्य का मामला है। यह सवाल इसलिए भी जरूरी है कि यह पश्चिमी घाटों से संबंधित है, यानी सीधे-सीधे हिमालय पर्वत श्रृंखला यानी हमारे गणतंत्र के आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन के लिए महत्वपूर्ण है।

सौभाग्य से कुछ युवा कन्नड़डिगाओं को आज भी शिवराम कारंथ की भावनाओं का खयाल है। यह आलेख भी ‘पश्चिमा घाट जागृति वेदिका' के सदस्यों की जमीनी सूचनाओं पर आधारित है। जरूरी है कि इन कार्यकर्ताओं की चिंताएं राज्य के अन्य हिस्सों में भी पहुंचें। बेंगलुरू की अल्पकालिक जरूरतें पूरी करने के लिए प्रकृति के साथ ऐसा अनाचार, कर्नाटक के लिए विनाशकारी ही होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 


https://www.livehindustan.com/blog/latest-blog/story-opinion-hindustan-column-on-7-july-2054792.html


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