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न्यूज क्लिपिंग्स् | कालाहांडी में बार-बार चढ़ती काठ की हांडी- सलमान रावी

कालाहांडी में बार-बार चढ़ती काठ की हांडी- सलमान रावी

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published Published on Apr 9, 2014   modified Modified on Apr 9, 2014
शहर कैसा होता है? इन्हें नहीं पता। बस कैसी होती है? ये नहीं जानतीं। "शायद शहर में मेम रहती है। मुझे पता नहीं। शहर बहुत बड़ा होगा। वहां बिजली होगी। जगमग-जगमग करता होगा। वहां मेले लगते होंगे। शहर की लड़कियां बहुत ख़ूबसूरत होंगी लेकिन मैंने उन्हें कभी नहीं देखा।"

ये कल्पना है, कालाहांडी के पेर्गुनी पाड़ा गाँव में रहने वाली ललिता की, जिसने कभी शहर नहीं देखा है। ललिता के सपनों में शहर है तो ज़रूर, मगर उसे पता नहीं सचमुच का शहर कभी देख पाएगी या नहीं।

ललिता की उम्र 16 है और रूपदेयी की तक़रीबन 70। दोनों की उम्र में काफ़ी अंतर है, पर बुनियादी सुविधाओं की ही तरह 'जेनरेशन गैप' भी यहाँ नहीं पाया जाता। दोनों के बीच का 54 साल का फ़ासला ऐसा है जिसमें कोई मील का पत्थर नहीं है।

अभाव की सूखी ज़मीन पर पैदा हुईं ललिता और रूपदेयी की दुनिया में कोई अंतर नहीं है। आने वाले समय में कोई अंतर होगा इसकी भविष्यवाणी करने का जोखिम कोई नहीं लेना चाहता।

कालाहांडी में दो हज़ार साल पुरानी सभ्यता के अवशेष हैं। पुरातत्ववेत्ता उसे उस वक़्त की विकसित सभ्यता मानते हैं। लौहयुग की उस सभ्यता से 21वीं सदी के 'ख़ुशहाल भारत' का कालाहांडी कितना अलग है?

ज़िला मुख्यालय भवानीपटना से 120 किलोमीटर दूर बसा गोपीनाथपुरा पंचायत का ये गाँव अकाल, भूख, बीमारी और अभाव का लंबा सफ़र तय करके आज अपने आपको वहीं खड़ा पाता है, जहाँ आज़ादी से पहले हुआ करता था।

कालाहांडी में पिछले 200 साल से भुखमरी हर 10-15 साल बाद किसी रिश्तेदार की तरह चली आती है। शहरी लोग, ख़ासतौर पर नेता, अधिकारी और पत्रकार यहाँ तभी आते हैं, जब भुखमरी यहाँ के दौरे पर हो।

1980 के दशक में जब ऐसी ख़बरें आने लगीं कि भूख की मारी औरतें अपनी गोद के बच्चे बेच रही हैं, तो उस वक़्त के प्रधानमंत्री राजीव गांधी यहाँ का हाल देखने पहुँचे थे।

उसके दो दशक बाद मैं इस इलाक़े में 2007 में गया था जब बामनीचंचरा, गोपीकांदर और पुटकीमोल जैसे कई गाँव भूख और बीमारी की चपेट में आ गए थे, इस दौरान कई लोगों की मौत हो गई थी। हमेशा की तरह नेता और अधिकारी इस बात पर सहमत नहीं हो पा रहे थे कि लोग भूख से मरे हैं या बीमारी से?

सात साल बाद 2014 में भी हालात बहुत बेहतर नहीं हुए हैं। अलबत्ता 2007 में ऑड्री ग्राम पंचायत के लिए जो रास्ता जाया करता था, अब वह बंद है। नदी-नाले पार करके कच्ची सड़क और पगडंडियों से गुज़रकर ही इन इलाक़ों में पहुँचा जा सकता है।

रूपदेयी की भी पूरी ज़िंदगी इसी गाँव में बीत गई। गाँव की दूसरी महिलाओं की तरह जंगल से लकड़ी चुनने और मिट्टी काटने का काम करती हैं। रूपदेयी ने बताया, "कहाँ जाएँ बस में बैठकर? पास में पैसे नहीं हैं। बाज़ार भी जाएँ तो क्या लेकर जाएँ?"

2007 से हालात सिर्फ़ इतने बदले हैं कि अब इस इलाक़े में सरकार सस्ती दर पर एक रुपए प्रति किलो चावल मुहैया करा रही है। यह एक बड़ी राहत ज़रूर है, लेकिन चावल के साथ आख़िर वो क्या मिलाकर खाएँ? यह बड़ा सवाल है।

गाँव के ही कलिंग मांझी कहते हैं कि हर परिवार को हर महीने 25 किलो चावल मिलता तो ज़रूर है, जिसमें किसी तरह गुज़ारा हो पाता है।

मांझी कहते हैं, "कभी जब यहाँ हाट लगता है तो वहाँ से दाल ख़रीद लाते हैं, मगर उसके लिए तो पैसे चाहिए। उतना काम भी नहीं है कि पैसे मिलें। यहाँ उतना पानी नहीं है कि हम अपने लिए सब्ज़ी या दाल उगाएँ।"

राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के तहत भी पर्याप्त काम नहीं है। इसलिए उन्हें दूसरे साधन तलाश करने पड़ रहे हैं। काम की तलाश इनमें से कई लोगों को ओडिशा के दूसरे हिस्सों के अलावा आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु ले जा रही है।

बाहर जाकर मज़दूरी उतनी नहीं मिलती जिससे ये लोग अपनी ज़रूरतें पूरी कर सकें। कलिंग मांझी का कहना है कि उनके गाँव की बदहाली इस बात से साबित होती है कि 150 घरों वाले गाँव में सिर्फ़ दो ही साइकिलें हैं।

पिछली बार चुनाव के दौरान नेताओं ने आकर वादा भी किया था। अब चुनाव एक बार फिर आ गए हैं तो फिर से वादों का दौर शुरू हो जाएगा।

1999 और 2004 में यहाँ 'इंडिया शाइनिंग' का नारा देने वाली भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार की जीत हुई थी और 2009 में 'सबके लिए विकास' की बात करने वाली कांग्रेस के उम्मीदवार ने जीत हासिल की थी।

ललिता और गाँव के हमउम्र लड़के-लड़कियों ने तो कभी परदे या टीवी पर कोई फ़िल्म भी नहीं देखी है। टीवी दूर की बात है, जब बिजली ही नहीं है। इक्का-दुक्का रेडियो हैं, जिन पर वे कभी गाने और समाचार सुन लेते हैं।

मोबाइल नेटवर्क 60 किलोमीटर दूर प्रखंड मुख्यालय तक ही है। बस प्रखंड का दफ़्तर पार करते ही मोबाइल नेटवर्क ख़त्म हो जाता है। मोबाइल पर बात करने के लिए 60 किलोमीटर का सफ़र तय करके प्रखंड कार्यालय

पेर्गुनी पाड़ा और बोड़-बोपला के रहने वालों के पास सिर्फ़ एक ही कार्ड है। और वो है मतदाता पहचान कार्ड। इसके अलावा किसी तरह का कार्ड इनके पास नहीं है। मसलन, राशन कार्ड, आधार कार्ड या फिर आदिवासी होने का कार्ड।

गाँव के गुल्टू मांझी कहते हैं कि उन्हें वोट डालने का मन तो नहीं करता, मगर मजबूरी है। वे कहते हैं, "वोट नहीं डालेंगे तो हमारा नाम मतदाता सूची से कट जाएगा। ऐसा नेता लोग बोलते हैं। हमारे पास सिर्फ़ एक ही तो पहचान है, हमारा मतदाता पहचान पत्र।"

वोट हासिल करने वालों के लिए जो ज़रूरी था, वो गाँव वालों को मिल गया। मगर जो इनके लिए ज़रूरी है, उसका इंतज़ार लंबा है। इन्हें पता नहीं कि सदियों का यह इंतज़ार कब ख़त्म होगा?

http://www.amarujala.com/feature/samachar/national/poverty-is-deep-concern-in-kalahandi-since-independence/


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